View Full Version : लहरों का निमंत्रण
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 01:51 PM
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण !
रात का अंतिम प्रहर है,
झिलमिलाते हैं सितारे ,
वक्ष पर युग बाहु बाँधे
मैं खड़ा सागर किनारे,
वेग से बहता प्रभंजन
केश पट मेरे उड़ाता,
शून्य में भरता उदधि -
उर की रहस्यमयी पुकारें;
इन पुकारों की प्रतिध्वनि
हो रही मेरे ह्रदय में,
है प्रतिच्छायित जहाँ पर
सिंधु का हिल्लोल कंपन .
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण !
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 01:51 PM
विश्व की संपूर्ण पीड़ा
सम्मिलित हो रो रही है,
शुष्क पृथ्वी आंसुओं से
पाँव अपने धो रही है,
इस धरा पर जो बसी दुनिया
यही अनुरूप उनके--
इस व्यथा से हो न विचलित
नींद सुख की सो रही है;
क्यों धरनि अबतक न गलकर
लीन जलनिधि में हो गई हो ?
देखते क्यों नेत्र कवि के
भूमि पर जड़-तुल्य जीवन ?
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमंत्रण !
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 01:51 PM
जर जगत में वास कर भी
जर नहीं ब्यबहार कवि का,
भावनाओं से विनिर्मित
और ही संसार कवि का,
बूँद से उच्छ्वास को भी
अनसुनी करता नहीं वह
किस तरह होती उपेक्षा -
पात्र पारावार कवि का ,
विश्व- पीड़ा से , सुपरिचित
हो तरल बनने, पिघलने ,
त्याग कर आया यहाँ कवि
स्वप्न-लोकों के प्रलोभन .
तीर पर कैसे रुकूं मैं,
आज लहरों में निमंत्रण !
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 01:51 PM
जिस तरह मरू के ह्रदय में
है कहीं लहरा रहा सर ,
जिस तरह पावस- पवन में
है पपीहे का छुपा स्वर ,
जिस तरह से अश्रु- आहों से
भरी कवि की निशा में
नींद की परियां बनातीं
कल्पना का लोक सुखकर,
सिंधु के इस तीव्र हाहा-
कर ने , विश्वास मेरा ,
है छिपा रक्खा कहीं पर
एक रस-परिपूर्ण गायन.
तीर पर कैसे रुकूं मैं
आज लहरों में निमंत्रण !
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 01:51 PM
नेत्र सहसा आज मेरे
तम पटल के पार जाकर
देखते हैं रत्न- सीपी से
बना प्रासाद सुंदर ,
है ख जिसमें उषा ले
दीप कुंचित रश्मियों का ;
ज्योति में जिसकी सुनहली
सिंधु कन्याएँ मनोहर
गूढ़ अर्थो से भरी मुद्रा
बनाकर गान करतीं
और करतीं अति अलौकिक
ताल पर उन्मत्त नर्तन .
तीर पर कैसे रुकूं मैं
आज लहरों में निमंत्रण !
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 01:52 PM
मौन हो गन्धर्व बैठे
कर स्रवन इस गान का स्वर,
वाद्ध्य - यंत्रो पर चलाते
हैं नहीं अब हाथ किन्नर,
अप्सराओं के उठे जो
पग उठे ही रह गए हैं,
कर्ण उत्सुक, नेत्र अपलक
साथ देवों के पुरंदर
एक अदभुत और अविचल
चित्र- सा है जान पड़ता,
देव- बालाएँ विमानो से
रहीं कर पुष्प- वर्षण.
तीर पर कैसे रुकूं मैं,
आज लहरों में निमंत्रण !
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 01:52 PM
दीर्घ उर में भी जलधि के
है नहीं खुशियाँ समाती,
बोल सकता कुछ न उठती
फूल बारंबार छाती;
हर्ष रत्नागार अपना
कुछ दिखा सकता जगत को
भावनाओं से भरी यदि
यह फफककर फूट जाती;
सिंधु जिस पर गर्व करता
और जिसकी अर्चना को
स्वर्ग झुकता, क्यों न उसके
प्रति करे कवि अर्ध्य अर्पण .
तीर पर कैसे रुकूं मैं,
आज लहरों में निमंत्रण !
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 01:52 PM
आज अपने स्वप्न को मैं
सच बनाना चाहता हूँ ,
दूर कि इस कल्पना के
पास जाना चाहता हूँ
चाहता हूँ तैर जाना
सामने अंबुधि पड़ा जो ,
कुछ विभा उस पार की
इस पार लाना चाहता हूँ;
स्वर्ग के भी स्वप्न भू पर
देख उनसे दूर ही था,
किंतु पाऊँगा नहीं कर
आज अपने पर नियंत्रण .
तीर पर कैसे रुकूं मैं ,
आज लहरों में निमंत्रण !
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 01:53 PM
लौट आया यदि वहाँ से
तो यहाँ नवयुग लगेगा ,
नव प्रभाती गान सुनकर
भाग्य जगती का जागेगा ,
शुष्क जड़ता शीघ्र बदलेगी
सरस चैतन्यता में ,
यदि न पाया लौट , मुझको
लाभ जीवन का मिलेगा;
पर पहुँच ही यदि न पाया
ब्यर्थ क्या प्रस्थान होगा?
कर सकूंगा विश्व में फिर
भी नए पथ का प्रदर्शन.
तीर पर कैसे रुकू मैं ,
आज लहरों में निमंत्रण !
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 01:53 PM
स्थल गया है भर पथों से
नाम कितनों के गिनाऊँ,
स्थान बाकी है कहाँ पथ
एक अपना भी बनाऊं?
विशव तो चलता रहा है
थाम राह बनी-बनाई,
किंतु इस पर किस तरह मैं
कवि चरण अपने बढ़ाऊँ?
राह जल पर भी बनी है
रुढि,पर, न हुई कभी वह,
एक तिनका भी बना सकता
यहाँ पर मार्ग नूतन !
तीर पर कैसे रुकूं मैं,
आज लहरों में निमंत्रण!
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 01:53 PM
देखता हूँ आँख के आगे
नया यह क्या तमाशा --
कर निकलकर दीर्घ जल से
हिल रहा करता माना- सा
है हथेली मध्य चित्रित
नीर भग्नप्राय बेड़ा!
मै इसे पहचानता हूँ ,
है नहीं क्या यह निराशा ?
हो पड़ी उद्दाम इतनी
उर-उमंगें , अब न उनको
रोक सकता हाय निराशा का,
न आशा का प्रवंचन.
तीर पर कैसे रुकूं मैं ,
आज लहरों में निमंत्रण!
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 01:53 PM
पोत अगणित इन तरंगों ने
डुबाए मानता मैं
पार भी पहुचे बहुत से --
बात यह भी जनता मैं ,
किंतु होता सत्य यदि यह
भी, सभी जलयान डूबे,
पार जाने की प्रतिज्ञा
आज बरबस ठानता मैं,
डूबता मैं किंतु उतराता
सदा व्यक्तित्व मेरा,
हों युवक डूबे भले ही
है कभी डूबा न यौवन !
तीर पर कैसे रुकूं मैं,
आज लहरों में निमंत्रण !
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 01:53 PM
आ रहीं प्राची क्षितिज से
खींचने वाली सदाएं
मानवों के भाग्य निर्णायक
सितारों! दो दुआए ,
नाव, नाविक फेर ले जा ,
है नहीं कुछ काम इसका ,
आज लहरों से उलझने को
फड़कती हैं भुजाएं;
प्राप्त हो उस पार भी इस
पार-सा चाहे अँधेरा ,
प्राप्त हो युग की उषा
चाहे लुटाती नव किरण-धन.
तीर पर कैसे रुकूं मैं ,
आज लहरों में निमंत्रण!
Powered by vBulletin® Version 4.2.5 Copyright © 2023 vBulletin Solutions Inc. All rights reserved.