PDA

View Full Version : सतरंगिनी



INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 04:51 PM
http://www.kavitakosh.org/kk/images/thumb/c/c3/Satrangini.jpg/140px-Satrangini.jpg
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!

तू प्रलय काल के मेघों का
कज्*जल-सा कालापन लेकर,
तू नवल सृष्*टि की ऊषा की
नव द्युति अपने अंगों में भर,
बड़वाग्नि-विलोडि़त अंबुधि की
उत्*तुंग तरंगों से गति ले,
रथ युत रवि-शशि को बंदी कर
दृग-कोयों का रच बंदीघर,
कौंधती तड़ित को जिह्वा-सी
विष-मधुमय दाँतों में दाबे,
तू प्रकट हुई सहसा कैसे
मेरी जगती में, जीवन में?
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!

तू मनमोहिनी रंभा-सी,
तू रुपवती रति रानी-सी,
तू मोहमयी उर्वशी सदृश,
तू मनमयी इंद्राणी-सी,
तू दयामयी जगदंबा-सी
तू मृत्*यु सदृश कटु, क्रुर, निठुर,
तू लयंकारी कलिका सदृश,
तू भयंकारी रूद्राणी-सी,
तू प्रीति, भीति, आसक्ति, घृणा
की एक विषम संज्ञा बनकर,
परिवर्तित होने को आई
मेरे आगे क्षण-प्रतिक्षण में।
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 04:51 PM
प्रलयंकर शंकर के सिर पर
जो धूलि-धूसरित जटाजूट,
उसमें कल्*पों से सोई थी
पी कालकूट का एक घूँट,
सहसा समाधि का भंग शंभु,
जब तांडव में तल्*लीन हुए,
निद्रालसमय, तंद्रानिमग्*न
तू धूमकेतु-सी पड़ी छूट;
अब घुम जलस्*थल-अंबर में,
अब घूम लोक-लोकांतर में
तू किसको खोजा करती है,
तू है किसके अन्*वीक्षण में?
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!

तू नागयोनि नागिनी नहीं,
तू विश्*व विमोहक वह माया,
जिसके इंगित पर युग-युग से
यह निखिल विश्*व नचता आया,
अपने तप के तेजोबल से
दे तुझको व्*याली की काया,
धूर्जटि ने अपने जटिल जूट-
व्*यूहों में तुझको भरमाया,
पर मदनकदन कर महायतन
भी तुझे न सब दिन बाँध सके,
तू फिर स्*वतंत्र बन फिरती है
सबके लोचन में, तन-मन में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!

तू फिरती चंचल फिरकी-सी
अपने फन में फुफकार लिए,
दिग्*गज भी जिससे काँप उठे
ऐसा भीषण हुँकार लिए,
पर पल में तेरा स्*वर बदला,
पल में तेरी मुद्रा बदली,
तेरा रुठा है कौन कि तू
अधरों पर मृदु मनुहार लिए,
अभिनंदन करती है उसका,
अभिपादन करती है उसका,
लगती है कुछ भी देर नहीं
तेरे मन के परिवर्तन में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 04:51 PM
प्रेयसि का जग के तापों से
रक्षा करने वाला अंचल,
चंचल यौवन कल पाता है
पाकर जिसकी छाया शीतल,
जीवन का अंतिम वस्*त्र कफ़न
जिसको नख से शीख तक तनकर
वह सोता ऐसी निद्रा में
है होता जिसके हेतु न कल,
जिसको तन तरसा करता है,
जिससे डरपा करता है,
दोनों की झलक मुझे मिलती
तेरे फन के अवगुंठन में!
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!

जाग्रत जीवन का कंपन है
तेरे अंगों के कंपन में,
पागल प्राणें का स्*पंदन है
तेरे अंगों के स्*पंदन में,
तेरे द्रुत दोलित काया में
मतवाली घरियों की धड़कन,
उन्*मद साँसों की सिहरन में,
अल्*हड़ यौवन करवट लेता
जब तू भू पर लुंठित होती,
अलमस्*त जवानी अँगराती
तेरे अंगों की ऐंठन में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!

तू उच्*च महत्*वाकांक्षा-सी
नीचे से उठती ऊपर को,
निज मुकुट बना लेगी जैसे
तारावलि- मंडल अंबर को,
तू विनत प्रार्थना-सी झुककर
ऊपर से नीचे को आती,
जैसे कि किसी की पद-से
ढँकने को है अपने सिर को,
तू आसा-सी आगे बढ़ती,
तू लज्*जा-सी पीछे हटती,
जब एक जगह टिकती, लगती
दृढ़ निश्*चय-सी निश्*चल मन में।
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 04:52 PM
मलयाचल में मलयानिल-सी
पल भर खाती, पल इतराती
तू जब आती, युग-युग दहाती
शीतल हो जाती है छाती,
पर जब चलती उद्वेग भरी
उत्*तप्*त मरूस्*थल की लू-सी
चिर संचित, सिंचित अंतर के
नंदन में आग लग जाती;
शत हिमशिखरों की शीतलता,
श्*त ज्*वालामुखियों की दहकन,
दोनों आभासित होती है
मुझको तेरे आलिंगन में!
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!

इस पुतली के अंदर चित्रित
जग के अतीत की करूण कथा,
गज के यौवन का संघर्षन,
जग के जीवन की दुसह व्*यथा;
है झुम रही उस पुतली में
एेसे सुख-सपनों की झाँकी,
जो निकली है जब आशा ने
दुर्गम भविष्*य का गर्भ माथा;
है क्षुब्*ध-मुग्*ध पल-पल क्रम से
लंगर-सा हिल-हिल वर्तमान
मुख अपना देखा करता है
तेरे नयनों के दर्पण में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!

तेरे आनन का एक नयन
दिनमणि-सा दिपता उस पथ पर,
जो स्*वर्ग लोक को जाता है,
जो चिर संकटमय, चिर दस्*तूर;
तेरे आनन का एक नेत्र
दीपक-सा उस मग पर जगता,
जो नरक लोक को जाता है,
जो चिर सुखमायमय, चिर सुखकर;
दोनों के अंदर आमंत्रण,
दोनों के अंदर आकर्षण,
खुलते-मुंदते हैं सर्व्*ग-नरक
के देर तेरी हर चितवन में!

सहसा यह तेरी भृकुटि झुकी,
नभ से करूणा की वृष्टि हुई,
मृत-मूर्च्छित पृथ्*वी के ऊपर
फिर से जीवन की सृष्टि हुई,
जग के आँगन में लपट उठी,
स्*वप्*नों की दुनिया नष्*ट हुई;
स्*वेच्*छाचारिण*ि, है निष्*कारण
सब तेरे मन का क्रोध, कृपा,
जग मिटता-बनता रहता है
तेरे भ्रू के संचालन में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 04:52 PM
अपने प्रतिकूल गुणों की सब
माया तू संग दिखाती है,
भ्रम, भय, संशय, संदेहों से
काया विजडि़त हो जाती है,
फिर एक लहर-सीआती है,
फिर होश अचानक होता है,
विश्*वासी आशा, निष्*ठा,
श्रद्धा पलकों पर छाती है;
तू मार अमृत से सकती है,
अमरत्*व गरल से दे सकती,
मेरी मति सब सुध-बुध भूली
तेरे छलनामय लक्षण में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!

पिपरीत क्रियाएँमेरी भी
अब होती हैं तेरे आगे,
पग तेरे पास चले आए
जब वे तेरे भय से भागे,
मायाविनि क्*या कर देती है
सीधा उलटा हो जाता है,
जब मुक्ति चाहता था अपनी
तुझसे मैंने बंधन माँगे,
अब शा*ंति दुसह-सी लगती है,
अब मन अशांति में रमता है,
अब जलन सुहाती है उर को,
अब सुख मिलता उत्*पीड़न में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!

तूने आँखों में आँख डाल
है बाँध लिया मेरे मन को,
मैं तुझको कीलने चला मगर
कीला तूने तन को,
तेरी परछाई-सा बन मैं
तेरे संग हिलता-डुलता हूँ,
मैं नहीं समझता अलग-अलग
अब तेरे-अपने जीवन को,
मैं तन-मन का दुर्बल प्राणी,
ज्ञानी, ध्*यानी भी बड़े-बड़े
हो दास चुके तेरे, मुझको
क्*या लज्*जा आत्*म-समर्पण में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!

तुझ पर न सका चल कोई भी
मेरा प्रयोग मारण-मोहन,
तेरा न फिरा मन और कहीं
फेंका भी मैंने उच्चाटन,
सब मंत्र, तंत्र, अभिचारों पर
तू हुई विजयिनी निष्*प्रयत्*न,
उलटा तेरे वश में आया
मेरा परिचालित वशीकरण;
कर यत्*न थका, तू सध न सकी
मेरे छंदों के बंधन में;
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!

सब सास-दाम औ' दंड-भेद
तेरे आगे बेकार हुआ,
जप, तप, व्रत, संयम, साधन का
असफल सारा व्*यापार हुआ,
तू दूर न मुझसे भाग सकी,
मैं दूर न तुझसे भाग सका,
अनिवारिणि, करने को अंतिम
निश्*चय, ले मैं तैयार हुआ-
अब शंति, अशांमति, माण,जीवन
या इनसे भी कुछ भिन्*न अगर,
सब तेरे पिषमय चुंबन में,
सब तेरे मधुमय दंशन में!
नर्तन कर, नर्तन कर, नागिन,
मेरे जीवन के आँगन में!

****************************************

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 04:53 PM
मयूरी,
नाच, मगन-मन नाच!

गगन में सावन घन छाए,
न क्*यों सुधि साजन की आए;
मयूरी, आँगन-आँगन नाच!
मयूरी,
नाच, मगन-मन नाच!

धरणी पर छाई हरियाली,
सजी कलि-कुसुमों से डाली;
मयूरी, मधुवन-मधुवन नाच!
मयूरी,
नाच, मगन-मन नाच!

समीरण सौरभ सरसाता,
घुमड़ घन मधुकण बरसाता;
मयूरी, नाच मदिर-मन नाच!
मयूरी,
नाच, मगन-मन नाच!

निछावर इंद्रधनुष तुझ पर,
निछावर, प्रकृति-पुरुष तुझ पर,
मयूरी, उन्*मन-उन्*मन नाच!
मयूरी, छूम-छनाछन नाच!
मयूरी, नाच, मगन-मन नाच!

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 04:53 PM
है अन्धेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था,
भावना के हाथ ने जिसमें वितानो को तना था,
स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा,
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगो से, रसों से जो सना था,
ढह गया वह तो जुटा कर ईंट, पत्थर, कंकडों को,
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

बादलों के अश्रु से धोया गया नभनील नीलम,
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम,
प्रथम ऊषा की नवेली लालिमा-सी लाल मदिरा,
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम,
वह अगर टूटा हथेली हाथ की दोनों मिला कर,
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

क्या घड़ी थी एक भी चिंता नहीं थी पास आई,
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई,
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती,
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई,
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार माना,
पर अथिरता की समय पर मुस्कुराना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा,
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान मांगा
एक अंतर से ध्वनित हो दूसरे में जो निरन्तर,
भर दिया अंबर अवनि को मत्तता के गीत गा-गा,
अंत उनका हो गया तो मन बहलाने के लिये ही,
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

हाय, वे साथी की चुम्बक लौह से जो पास आए,
पास क्या आए, कि ह्र्दय के बीच ही गोया समाए,
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर,
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए,
वे गए तो सोच कर ये लौटने वाले नहीं वे,
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

क्या हवाएँ थी कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना,
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना,
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका?
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना,
जो बसे हैं वे उजडते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजडे हुए को फिर बसाना कब मना है?
है अन्धेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 04:54 PM
जो बीत गई सो बात गई!

जीवन में एक सितारा था,
माना, वह बेहद प्*यारा था,
वह डूब गया तो डूब गया;
अंबर के आनन को देखे,
कितने इसके तारे टूटे,
कितने छूट गए कहाँ मिले;
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है!
जो बीत गई सो बात गई!

जीवन में वह था एक कुसुम,
थे उस पर नित्*य निछावर तुम,
वह सूख गया तो सूख गया;
मधुवन की छाती को देखो,
सूखी कितनी इसकी कलियाँ,
मुरझाई कितनी वल्*लरियाँ,
जो मुरझाई फिर कहाँ खिलीं;
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है;
जो बीत गई सो बात गई!

जीवन में मधु का प्*याला था,
तुमने तन-मन दे डाला था,
वह टूट गया तो टूट गया;
मदिरालय का आँगन देखो,
कितने प्*याले हिल जाते हैं,
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं,
जो गिरते हैं कब उठते हैं;
पर बोलो टूटे प्*याले पर
कब मदिरालय पछताता है!
जो बीत गई सो बात गई!

मृदु मिट्टी के हैं बने हुए,
मधुघट फूटा ही करते हैं,
लघु जीवन लेकर आए हैं,
प्*याले टूटा ही करते हैं,
फिर भी मदिरालय के अंदर
मधु के घट हैं, मधुप्*याले हैं,
जो मादकता के मारे हैं,
वे मधु लूटा ही करते हैं;
वह कच्*चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट-प्*यालों पर,
जो सच्*चे मधु से जला हुआ
कब रोता है, चिल्*लाता है!
जो बीत गई सो बात गई!

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 04:54 PM
अजेय तू अभी बना!

न मंजिलें मिलीं कभी,
न मुश्किलें हिलीं कभीं,
मगर क़दम थमें नहीं,
क़रार-क़ौल जो ठना।
अजेय तू अभी बना।

सफल न एक चाह भी,
सुनी न एक आह भी,
मगर नयन भुला सके
कभी न स्*वप्*न देखना।
अजेय तू अभी बना!

अतीत याद है तुझे,
कठिन विषाद है तुझे,
मगर भविष्*य से रूका
न अँखमुदौल खेलना।
अजेय तू अभी बना!

सुरा समाप्*त हो चुकी,
सुपात्र-माल खो चुकी,
मगर मिटी, हटी, दबी
कभी न प्*यास-वासना।
अजेय तू अभी बना!

पहाड़ टूटकर गिरा,
प्रलय पयोद भी घिरा,
मनुष्*य है कि देव है
कि मेरुदंड है तना!
अजेय तू अभी बना!

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 04:55 PM
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर!

वह उठी आँधी कि नभ में,
छा गया सहसा अँधेरा,
धूलि धूसर बादलों नें
भूमि को भाँति घेरा,
रात-सा दिन हो गया, फिर
रात आई और काली,
लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सवेरा,
रात के उत्*पात-भय से
भीत जन-जन, भीत कण-कण
किंतु प्राची से उषा की
मोहनी मुसकान फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर,

वह चले झोंके कि काँपे
भीम कायावान भूधर,
जड़ समेत उखड़-पुखड़कर
गिर पड़े, टूटे विटप वर,
हाय, तिनकों से विनिर्मित
घोंसलों पर क्*या न बीती,
डगमगाए जबकि कंकड़,
ईंट, पत्*थर के महल-घर;
बोल आशा के विहंगम,
किस जगह पर तू छिपा था,
जो गगन चढ़ उठाता
गर्व से निज तान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर!

क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों
में उषा है मुसकराती,
घोर गर्जनमय गगन के
कंठ में खग पंक्ति गाती;
एक चिड़*या चोंच में तिनका
लिए जो गा रही है,
वह सहज में ही पवन
उंचास को नीचा दिखाती!
नाश के दुख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्*तब्*धता से
सृष्टि का नव गान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर!

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 04:56 PM
दो नयन जिससे कि फिर मैं
विश्*व का श्रृंगार देखूँ।

स्*वप्*न की जलती हुई नगरी
धुआँ जिसमें गई भर,
ज्*योति जिनकी जा चुकी है
आँसुओं के साथ झर-झर,
मैं उन्*हीं से किस तरह फिर
ज्*योति का संसार देखूँ,
दो नयन जिससे कि फिर मैं
विश्*व का श्रृंगार देखूँ।

देखते युग-युग रहे जो
विश्*व का वह रुप अल्*पक,
जो उपेक्षा, छल घृणा में
मग्*न था नख से शिखा तक,
मैं उन्*हीं से किस तरह फिर
प्*यार का संसार देखूँ,
दो नयन जिससे कि फिर मैं
विश्*व का श्रृंगार देखूँ।

संकुचित दृग की परिधि *थी
बात यह मैं मान लूँगा,
विश्*व का इससे जुदा जब
रुप भी मैं जान लूँगा,
दो नयन जिससे कि मैं
संसार का विस्*तार देखूँ;
दो नयन जिससे कि फिर मैं
विश्*व का श्रृंगार देखूँ।

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 04:56 PM
छू गया है कौन मन के तार,
वीणा बोलती है!
मौन तम के पार से यह कौन
तेरे पास आया,
मौत में सोए हुए संसार
को किसने जगाया,
कर गया है कौन फिर भिनसार,
वीणा बोलती है;
छू गया है कौन मन के तार,
वीणा बोलती है!

रश्मियों ने रंग पहन ली आज
किसने लाल सारी,
फूल-कलियों से प्रकृति की माँग
है किसकी सँवारी,
कर रहा है कौन फिर श्रृंगार,
वीणा बोलती है;
छू गया है कौन मन के तार,
वीणा बोलती है!

लोक के भय ने भले ही रात
का हो भय मिटाया,
किस लगन में रात दिन का भेद
ही मन से हटाया,
कौन करता है खुले अभिसार,
वीणा बोलती है;
छू गया है कौन मन के तार,
वीणा बोलती है!

तू जिसे लेने चला था भूल-
कर अस्तित्*व अपना,
तू जिसे लेने चला था बेच-
कर अपनत्*व अपना,
दे गया है कौन वह उपहार
वीणा बोलती है;
छू गया है कौन मन के तार,
वीणा बोलती है!

जो करुण विनती मधुर मनुहार
से न कभी पिघलते,
टूटते कर, फूट जाते शीश
तिल भर भी न हिलते,
खुल कभी जाते स्*वयं वे द्वार,
वीणा बोलती है;
छू गया है कौन मन के तार,
वीणा बोलती है!

भूल तू जा अब पुराना गीत
औ' गाथा पुरानी,
भूल जा तू अब दुखों का राग
दुर्दिन की कहानी,
ले नया जीवन, नई झनकार,
वीणा बोलती है;
छू गया है कौन मन के तार,
वीणा बोलती है!

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 04:58 PM
इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो!

ज़मीन है न बोलती,
न आसमान बोलता,
जहान देखकर मुझे
नहीं ज़बान खोलता,
नहीं जगह कहीं जहाँ
न अजनबी गिना गया,
कहाँ-कहाँ न फिर चुका
दिमाग-दिल टटोलता;
कहाँ मनुष्*य है कि जो
उमीद छोड़कर जिया,
इसीलिए अड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो;
इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो;

तिमिर-समुद्र कर सकी
न पार नेत्र की तरी,
वि*नष्*ट स्*वप्*न से लदी,
विषाद याद से भरी,
न कूल भूमि का मिला,
न कोर भेर की मिली,
न कट सकी, न घट सकी
विरह-घिरी विभावरी;
कहाँ मनुष्*य है जिसे
कमी खली न प्*यार की,
इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे दुलार लो!
इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो!

उजाड़ से लगा चुका
उमीद मैं बाहर की,
निदाघ से उमीद की,
वसंत से बयार की,
मरुस्*थली मरीचिका
सुधामयी मुझे लगी,
अँगार से लगा चुका
उमीद मैं तुषार की;
कहाँ मनुष्*य है जिसे
न भूल शूल-सी गड़ी,
इसीलिए खड़ा रहा
कि भूल तुम सुधार लो!
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!
पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो!

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 04:59 PM
ले प्रलय की नींद सोया
जिन दृगों में था अँधेरा,
आज उनमें ज्*योति बनकर
ला रही हो तुम सवेरा,
सृष्टि की पहली उषा की
यदि नहीं मुसकान तुम हो,
कौन तुम हो?

आज परिचय की मधुर
मुसकान दुनिया दे रही है,
आज सौ-सौ बात के
संकेत मुझसे ले रही है
विश्*व से मेरी अकेली
यदि नहीं पहचान तुम हो,
कौन तुम हो?

हाय किसकी थी कि मिट्टी
मैं मिला संसार मेरा,
हास किसका है कि फूलों-
सा खिला संसार मेरा,
नाश को देती चुनौती
यदी नहीं निर्माण तुम हो,
कौन तुम हो?

मैं पुरानी यादगारों
से विदा भी ले न पाया
था कि तुमने ला नए ही
लोक में मुझको बसाया,
यदि नहीं तूफ़ान तुम हो,
जो नहीं उठकर ठहरता
कौन तुम हो?

तुम किसी बुझती चिता की
जो लुकाठी खींच लाती
हो, उसी से ब्*याह-मंडप
के तले दीपक जलाती,
मृत्*यु पर फिर-फिर विजय की
यदि नहीं दृढ़ आन तुम हो,
कौन तुम हो?

यह इशारे हैं कि जिन पर
काल ने भी चाल छोड़ी,
लौट मैं आया अगर तो
कौन-सी सौगंध तोड़ी,
सुन जिसे रुकना असंभव
यदि नहीं आह्वान तुम हो,
कौन तुम हो?

कर परिश्रम कौन तुमको
आज तक अपना सका है,
खोजकर कोई तुम्*हारा
कब पता भी पा सका है,
देवताओं का अनिश्चित
यदि नहीं वरदान तुम हो,
कौन तुम हो?

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 04:59 PM
तुम गा दो, मेरे गान अमर हो जाए!
मेरे वर्ण-वर्ण विश्रृंखल,
चरण-चरण भरमाए,
गूँज-गूँजकर मिटने वाले
मैंने गीत बनाए;
कूक हो गई हूक गगन की
कोकिल के कंठों पर,
तुम गा दो, मेरे गान अमर हो जाए!

जब-जब जग ने कर फैलाए,
मैंने कोष लुटाया,
रंक हुआ मैं निज निधि खोकर
जगती ने क्*या पाया!
भेंट न जिसमें मैं कुछ खोऊँ
पर तुम सब कुछ पाओ,
तुम ले लो, मेरा दान अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरे गान अमर हो जाए!

सुंदर और असुंदर जग में
मैंने क्*या न सराहा,
इतनी ममतामय दुनिया में
मैं केवल अनचाहा;
देखूँ अब किसकी रुकती है
आ मुझपर अभिलाषा,
तुम रख लो, मेरा मान अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरे गान अमर हो जाए!

दुख से जिवन बीता फिर भी
शेष अभी कुछ रहता,
जीवन की अंतिम घड़ियों में
भी तुमसे यह कहता,
सुख की एक साँस पर होता
है अमरत्*व निछावर,
तुम छू दो, मेरा प्राण अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरे गान अमर हो जाए!

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 04:59 PM
वर्ष नव,
हर्ष नव,
जीवन उत्कर्ष नव।


नव उमंग,
नव तरंग,
जीवन का नव प्रसंग।


नवल चाह,
नवल राह,
जीवन का नव प्रवाह।


गीत नवल,
प्रीत नवल,
जीवन की रीति नवल,
जीवन की नीति नवल,
जीवन की जीत नवल!

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 05:00 PM
देवि, गया है जोड़ा यह जो
मेरा और तुम्*हारा नाता,
नहीं तुम्*हारा मेरा केवल,
जग-जीवन से मेल कराता।

दुनिया अपनी, जीवन अपना,
सत्*य, नहीं केवल मन-सपना;
मन-सपने-सा इसे बनाने
का, आओ, हम तुम प्रण ठानें।

जैसी हमने पाई दुनिया,
आओ, उससे बेहतर छोड़ें,
शुचि-सुंदरतर इसे बनाने
से मुँह अपना कभी न मोड़ें।

क्*यों कि नहीं बस इससे नाता
जब तक जीवन-काल हमारा,
खेल, कूद, पढ़, बढ़ इसमें ही
रहने को है लाल हमारा।

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 05:02 PM
पंथ जीवन का चुनौती दे रहा है हर कदम पर,
आखिरी मंजिल नहीं होती कहीं भी दृष्टिगोचर,
धूलि में लद, स्*वेद में सिंच हो गई है देह भारी,
कौन-सा विश्*वास मुझको खींचता जाता निरंतर?-
पंथ क्*या, पंथ की थकान क्*या,
स्*वेद कण क्*या,
दो नयन मेरी प्रतीक्षा में खड़े हैं।

एक भी संदेश आशा का नहीं देते सितारे,
प्रकृति ने मंगल शकुन पथ में नहीं मेरे सँवारे,
विश्*व का उत्*साहवर्धक शब्*द भी मैंने सुना कब,
किंतु बढ़ता जा रहा हूँ लक्ष्*य पर किसके सहारे?-
विश्*व की अवहेलना क्*या,
अपशकुन क्*या,
दो नयन मेरी प्रतीक्षा में खड़े हैं।

चल रहा है पर पहुँचना लक्ष्*य पर इसका अनिश्चित,
कर्म कर भी कर्म फल से यदि रहा यह पांथ वंचित,
विश्*व तो उस पर हँसेगा खूब भूला, खूब भटका!
किंतु गा यह पंक्तियाँ दो वह करेगा धैर्य संचित-
व्*यर्थ जीवन, व्*यर्थ जीवन,
की लगन क्*या,
दो नयन मेरी प्रतीक्षा में खड़े हैं!

अब नहीं उस पार का भी भय मुझे कुछ भी सताता,
उस तरु के लोक से भी जुड़ चुका है मेरा नाता,
मैं उसे भूला नहीं तो वह नहीं भूली मुझे भी,
मृत्*यु-पथ पर भी बढ़ूँगा मोद से यह गुनगुनाता-
अंत यौवन, अंत जीवन
का मरण क्*या,
दो नयन मेरी प्रतीक्षा में खड़े हैं!