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View Full Version : सूत की माला



INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 05:34 PM
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नत्*थू ख़ैरे ने गांधी का कर अंत दिया
क्*या कहा, सिंह को शिशु मेढक ने लिल लिया!
धिक्*कार काल, भगवान विष्*णु के वाहन को
सहसा लपेटने
में समर्थ हो
गया लबा!

पड़ गया सूर्य क्*या ठंडा हिम के पाले से,
क्*या बैठ गया गिरि मेरु तूल के गाले से!
प्रभु पाहि देश, प्रभु त्राहि जाति, सुर के तन को
अपने मुँह में
लघु नरक कीट ने
लिया दबा!

यह जितना ही मर्मांतक उतना ही सच्*चा,
शांतं पापं, जो बिना दाँत का बच्*चा,
करुणा ममता-सी मूर्तिमान मा को कच्*चा
देखते देखते
सब दुनिया के
गया चबा!

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 05:35 PM
आओ बापू के अंतिम दर्शन कर जाओ,
चरणों में श्रद्धांजलियाँ अर्पण कर जाओ,
यह रात आखिरी उनके भौतिक जीवन की,
कल उसे करेंगी
भस्*म चिता की
ज्*वालाएँ।

डांडी के यारत्रा करने वाले चरण यही,
नोआखाली के संतप्*तों की शरण यही,
छू इनको ही क्षिति मुक्*त हुई चंपारन की,
इनको चापों ने
पापों के दल
दहलाए।

यह उदर देश की भुख जानने वाला था,
जन-दुख-संकट ही इसका ही नित्*य नेवाला था,
इसने पीड़ा बहु बार सही अनशन प्रण की
आघात गोलियाँ
के ओढ़े
बाएँ-दाएँ।

यह छाती परिचित थी भारत की धड़कन से,
यह छाती विचलित थी भारत की तड़पन से,
यह तानी जहाँ, बैठी हिम्*मत गोले-गन की
अचरज ही है
पिस्*तौल इसे जो
बिठलाए।

इन आँखों को था बुरा देखना नहीं सहन,
जो नहीं बुरा कुछ सुनते थे ये वही श्रवण,
मुख यही कि जिससे कभी न निकला बुरा वचन,
यह बंद-मूक
जग छलछुद्रों से
उकताए।

यह देखो बापू की आजानु भुजाएँ हैं,
उखड़े इनसे गोराशाही के पाए हैं,
लाखों इनकी रक्षा-छाया-में आए हैं,
ये हा*थ सबल
निज रक्षा में
क्*यों सकुचाए।

यह बापू की गर्वीली, ऊँची पेशानी,
बस एक हिमालय की चोटी इनकी सनी,
इससे ही भारत ने अपनी भावी जानी,
जिसने इनको वध करने की मन में ठानी
उसने भारत की किस्*मत में फेरा पानी;
इस देश-जाती के हुए विधाता
ही बाएँ।

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 05:35 PM
यह कौन चाहता है बापूजी की काया
कर शीशे की ताबूत-बद्ध रख ली जाए,
जैसे रक्*खी है लाश मास्*को में अब तक
लेनिन की, रशिया
के प्रसिद्धतम
नेता की।

हम बुत-परस्*त मशहूर भूमि के ऊपर हैं,
शव-मोह मगर हमने कब ऐसा दिखलाया,
क्*या राम, कृष्*ण, गौतम, अकबर की
हम, अगर चाहते,
लाश नही रख
सकते थे।

आत्*मा के अजर-अमरता के हम विश्*वासी,
काया को हमने जीर्ण वसन बस माना है,
इस महामोह की बेला में भी क्*या हमको
वाजीब अपनी
गीता का ज्ञान
भुलना है।

क्*या आत्*मा को धरती माता का ऋण है,
बापू को अपना अंतिम कर्ज चुकाने दो,
वे जाति, देश, जग, मानवता से उऋण हुए,
उन पर मृत मिट्टी
का ऋण मत रह जाने दो।

रक्षा करने की वस्*तु नहीं है उनकी काया,
उनकी विचार संचित करने की चीज़ें हैं,
उनको भी मत जिल्*दों में करके बंद धरो,
उनके जन-जन
मन-मन, कण-कण
में बिखरा जाओ।

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 05:36 PM
अब अर्द्धरात्रि है और अर्द्धजल बेला,
अब स्*नान करेगा यह जोधा अलबेला,
लेकिन इसको छेड़ते हुए डर लगता,
यह बहुत अधिक
थककर धरती पर
सोता।

क्*या लाए हो जमुना का निर्मल पानी,
परिपाटी के भी होते हैं कुछ मानी,
लेकिन इसकी क्*या इसको आवश्*यक्*ता,
वीरों का अंतिम
स्*नान रक्*त से
होता।

मत यह लोहू से भीगे वस्*त्र उतारो
मत मर्द सिपाही का श्रृंगार बिगाड़ो,
इस गर्द-खून पर चोवा-चंदन वारो
मानव-पीड़ा प्रतिबिंबित ऐसों का मुँह,
भगवान स्*वयं
अपने हाथों से
धोता।

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 05:36 PM
तुम बड़ा उसे आदर दिखलाने आए
चंदन, कपूर की चिता रचाने आए,
सोचा, किस महारथी की अरथी आती,
सोचा, उसने किस रण में प्राण बिछाए?

लाओ वे फरसे, बरछे, बल्*लम, भाले,
जो निर्दोषों के लोहू से हैं काले,
लाओ वे सब हथियार, छुरे, तलवारें,
जिनसे बेकस-मासूम औरतों, बच्*चों,
मर्दों,के तुमने लाखों शीश उतारे,

लाओ बंदूकें जिनसे गिरें हजारों,
तब फिर दुखांत, दुर्दांत महाभारत के
इस भीष्*म पितामह की हम चि*ता बनाएँ।

जिससे तुमने घर-घर में आग लगाई,
जिससे तुमने नगरों की पाँत जलाई,
लाओं वह लूकी सत्*यानाशी, घाती,
तब हम अपने बापू की चिता जलाएँ।

वे जलें, बनी रह जाए फिरकेतबंदी
वे जलें मगर हो आग न उसकी मंदी,
तो तुम सब जाओ, अपने को धिक्*कारो,
गाँधी जी ने बेमतलब प्राण गँवाए।

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 05:36 PM
भेद अतीत एक स्*वर उठता-
नैनं दहति पावक...:
निकट, निकटतर, निकटतम
हुई चिता के अरथी, हाय,
बापू के जलने का भी अब, आँखें, देखो दृश्*य दुसह।

भेद अतीत एक स्*वर उठता-
नैनं दहति पावक...:
चंदन की शैया के ऊपर
लेटी है मिट्टी निरुपाय
लो अब लपटों से अभिभूषित चिता दहकती है दह-दह।

भेद अतीत एक स्*वर उठता-
नैनं दहति पावक...:
अगणित भावों की झंझा में
खड़े देखते हैं हम असहाय
और किया भी क्*या...ऽ जाय,
क्षार-क्षार होती जाती है बापू की काया रह-रह।
भेद अतीत एक स्*वर उठता-
नैनं दहति पावक...:

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 05:42 PM
भारत के सब प्रसिद्ध तीर्थों से, नगरों से
है आज आ रही माँग तपोमय गाँधी की
अंतिम धूनी से राख हमें भी चुटकी भर
मिल जाए जिससे उसे सराएँ ले जाकर
पावन करते
निकटस्*थ नदी,
नद, सर, सागर।

अपने तन पर अधिकार समझते थे सब दिन
वे भारत की मिट्टी, भारत के पानी का,
जो लोग चाहते थे ले जाएँ राख आज,
है ठीक वही जसिको चाहे सारा समाज,
संबद्ध जगह जो हो गाँधी जी की मिट्टी से
साधना करे
रखने को उनकी
किर्ति-लाज

हे देश-जाति के दीवानों के चूड़ामणि,
इस चिर यौवनमय, सुंदर, पावन वसुंधरा
की सेवा में मनुहार सहज करते करते
दी तुमने अपनी उमर गँवा, दी देह त्*याग;
अब राख तुम्*हारी आर्यभूमि की भरे माँग,
हो अमर तुम्*हें खो
इस तपस्*व*िनी
का सुहाग।

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 05:42 PM
थैलियाँ समर्पित कीं सेवा के हित हजार,
श्रद्धांजलियाँ अर्पित कीं तुमको लाख बार,
गो तुम्*हें न थी इनकी कोई आवश्*यक्*ता,
पुष्*पांजलियाँ भी तुम्*हें देश ने दीं अपार,
अब, हाय, तिलांजलि
देने की आई बारी।

तुम तील थे लेकिन झुकाते सदा ताड़,
तुम तिल थे लेकिन लिए ओट में थे पहाड़,
शंकर-पिनाक-सी रही तुम्*हारी जमी धाक,
तुम हटी न ति*ल भर, गई दानवी शक्ति हार;
तिल एक तुम्*हारे जीवन की
व्*याख्*या सारी।

तिल-तिल कर तुमने देश कीच से उठा लिया,
तिल-तिल निज को उसकी चिंता में गला दिया,
तुमने स्*वदेश का तिलक किया आज़ादी से,
जीवन में क्*या, मरकर भी ऐसा तिलस्*म किया;
क़ातिल ने महिमा
और तुम्*हारी विस्*तारी।

तुम कटे मगर तिल भर भी सत्*ता नहीं कटी,
तुम लुप्*त हुए, तिल मात्र महत्*ता नहीं घटी,
तुम देह नहीं थे, तुम थे भारत की आत्*मा,
ज़ाहिर बातिल थी, बातिल ज़ाहिर बन प्रकटी,
तिल की अंजलि को आज
मिले तुम अधिकारी।

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 05:43 PM
बापू के हत्*या के चालिस दिन बाद गया
मैं दिल्*ली को, देखने गया उस थल को भी
जिस पर बापू जी गोली खाकर सोख गए,
जो रँग उठा
उनके लोहू
की लाली से।

बिरला-घर के बाएँ को है है वह लॉन हरा,
प्रार्थना सभा जिस पर बापू की होती थी,
थी एक ओर छोटी सी वेदिका बनी,
जिस पर थे गहरे
लाल रंग के
फूल चढ़े।

उस हरे लॉन के बीच देख उन फूलों को
ऐसा लगता था जैसे बापू का लोहू
अब भी पृथ्*वी
के ऊपर
ताज़ा ताज़ा है!

सुन पड़े धड़ाके तीन मुझे फिर गोली के
काँपने लगे पाँवों के नीचे की धरती,
फिर पीड़ा के स्*वर में फूटा 'हे राम' शब्*द,
चीरता हुआ विद्युत सा नभ के स्*तर पर स्*तर
कर ध्*वनित-प्रतिध्*वनित दिक्-दिगंत बार-बार
मेरे अंतर में पैठ मुझे सालने लगा!......

INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 05:43 PM
'हे राम' - खचित यह वही चौतरा, भाई,
जिस पर बापू पर ने अंतिम सेज डसाई,
जिस पर लपटों के साथ लिपट वे सोए,
गलती की हमने
जो वह आग बुझाई।

पारसी अग्नि जो फारस से लाए,
हैं आज तलक वे उसे ज्*वलंत बनाए,
जो आग चिता पर बापू के जगी थी
था उचित उसे
हम रहते सदा जगाए।

है हमको उनकी यादगार बनवानी,
सैकड़ों सुझाव देंगे पंडित-ज्ञानी,
लेकिन यदि हम वह ज्*वाल लगाए रहते,
होती उनकी
सबसे उपयुक्*त
निशानी।

तम के समक्ष वे ज्*योति एक अविचल थे,
आँधी-पानी में पड़कर अडिग-अटल थे,
तप के ज्*वाला के अंदर पल-पल जल-जल
वे स्*वयं अग्नि-से
अकलुष थे,
निर्मल थे।

वह ज्*वाला हमको उनकी याद दिलाती,
वह ज्*वाला हमको उनका पथ दिखलाती,
वह ज्*वाला भारत के घर-घर में जाती,
संदेश अग्निमय
जन-जन को
पहुँचाती।

पुश्*तहापुश्*त यह आग देखने आतीं,
इससे अतीत की सुधियाँ सजग बनातीं,
भारत के अमर तपस्*वी की इस धूनी
से ले भभूत
अपने सिर-माथ
चढ़ातीं।

पर नहीं आग की बाकी यहाँ निशानी,
प्रह्लाद-होलिका फिर घटी कहानी,
बापू ज्*वाला से निकल अछूते आए,
मिल गई राख-
मिट्टी में चिता
भवानी।

अब तक दुहरातीं मस्जिद की मिलारें,
अब तक दुहरात*ीं घर घर की दीवारें,
दुहराती पेड़ों की हर तरु कतारें,
दुहराते दरिया के जल-कूल-कगारे,
चप्*पे-चप्*पे इस राजघाट के रटते
जो लोग यहाँ थे चिता-शाम के नारे-
हो गए आज बापू अमर हमारे,
हो गए आज बापू अमर हमारे!_