View Full Version : समर्पण
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 08:28 PM
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तुम भी देते हो तोल-तोल!
नभ से बजली की वह पछाड़,
फिर बूँदें बनना गोल-गोल,
नभ-पति की भारी चकाचौंध,
उस पर बूँदों का मोल-तोल,
बूँदों में विधि के मिला बोल।
तुम भी देते हो तोल-तोल!
भू पर हरितीमा का उभार,
उस पर किसान की काट-छाँट,
हिरनों की उसमें रेल-पेल,
मर्कट-दल की कविता-कुलाँट,
बादल, छवि देते ढोल-ढोल।
तुम भी देते हो तोल-तोल!
टहनी बाहों-सी झूली हो,
हो हवा, किन्तु पथ-भूली हो,
चिडियाँ पंखों से झलती हों,
आँधियाँ कठोर मचलती हों,
मीठे में कड़ुवा घोल-घोल।
तुम भी देते हो तोल-तोल!
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 08:30 PM
आज बेटी जा रही है,
मिलन और वियोग की दुनिया नवीन बसा रही है।
मिलन यह जीवन प्रकाश
वियोग यह युग का अँधेरा,
उभय दिशि कादम्बिनी, अपना अमृत बरसा रही है।
यह क्या, कि उस घर में बजे थे, वे तुम्हारे प्रथम पैंजन,
यह क्या, कि इस आँगन सुने थे, वे सजीले मृदुल रुनझुन,
यह क्या, कि इस वीथी तुम्हारे तोतले से बोल फूटे,
यह क्या, कि इस वैभव बने थे, चित्र हँसते और रूठे,
आज यादों का खजाना, याद भर रह जायगा क्या?
यह मधुर प्रत्यक्ष, सपनों के बहाने जायगा क्या?
गोदी के बरसों को धीरे-धीरे भूल चली हो रानी,
बचपन की मधुरीली कूकों के प्रतिकूल चली हो रानी,
छोड़ जाह्नवी कूल, नेहधारा के कूल चली चली हो रानी,
मैंने झूला बाँधा है, अपने घर झूल चली हो रानी,
मेरा गर्व, समय के चरणों पर कितना बेबस लोटा है,
मेरा वैभव, प्रभु की आज्ञा पर कितना, कितना छोटा है?
आज उसाँस मधुर लगती है, और साँस कटु है, भारी है,
तेरे बिदा दिवस पर, हिम्मत ने कैसी हिम्मत हारी है।
कैसा पागलपन है, मैं बेटी को भी कहता हूँ बेटा,
कड़ुवे-मीठे स्वाद विश्व के स्वागत कर, सहता हूँ बेटा,
तुझे बिदाकर एकाकी अपमानित-सा रहता हूँ बेटा,
दो आँसू आ गये, समझता हूँ उनमें बहता हूँ बेटा,
बेटा आज बिदा है तेरी, बेटी आत्मसमर्पण है यह,
जो बेबस है, जो ताड़ित है, उस मानव ही का प्रण है यह।
सावन आवेगा, क्या बोलूँगा हरियाली से कल्याणी?
भाई-बहिन मचल जायेंगे, ला दो घर की, जीजी रानी,
मेंहदी और महावर मानो सिसक सिसक मनुहार करेंगी,
बूढ़ी सिसक रही सपनों में, यादें किसको प्यार करेंगी?
दीवाली आवेगी, होली आवेगी, आवेंगे उत्सव,
’जीजी रानी साथ रहेंगी’ बच्चों के? यह कैसे सम्भव?
भाई के जी में उट्ठेगी कसक, सखी सिसकार उठेगी,
माँ के जी में ज्वार उठेगी, बहिन कहीं पुकार उठेगी!
तब क्या होगा झूमझूम जब बादल बरस उठेंगे रानी?
कौन कहेगा उठो अरुण तुम सुनो, और मैं कहूँ कहानी,
कैसे चाचाजी बहलावें, चाची कैसे बाट निहारें?
कैसे अंडे मिलें लौटकर, चिडियाँ कैसे पंख पसारे?
आज वासन्ती दृगों बरसात जैसे छा रही है।
मिलन और वियोग की दुनियाँ नवीन बसा रही है।
आज बेटी जा रही है।
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 08:30 PM
यह बारीक खयाली देखी?
पौधे ने सिर उँचा करके, पत्ते दिये, डालि दी, फूला,
और फूलकर, फल बन, पक कर, तरु के सिर चढ़ झूले झूला,
तुमने रस की परख बड़ी की
रस पर रीझे, रस को पाया,
पर फल की मीठी फाँकों में माली की पामाली देखो?
यह बारीक खयाली देखी?
जब नदियों का प्यार समेटे ज्वार एक सागर को धाया,
वहाँ किसी ने नमक, किसी ने मोती, मूँगे; घर भर लाया,
जगे जौहरी बनकर, लाखों
पाये, महल बनाये, भोगे,
पनडुब्बे की पर क्या तुमने सूखी आँतें खाली देखीं?
यह बारीक खयाली देखी?
तुमहीं ने मलार गाया था, बादल घहर-घहर घिर आये,
तुम हँस उठे जब कि धान के खेतों पर वैभव लहराये,
तुम जहाज ले ले कर दौड़े
चावल लूटा, घर ले आये,
पर किसान की क्या भूखे बच्चों वाली घर वाली देखी?
यह बारीक खयाली देखी?
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 09:44 PM
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई!
भूलती-सी जवानी नई हो उठी,
भूलती-सी कहानी नई हो उठी,
जिस दिवस प्राण में नेह-बंशी बजी,
बालपन की रवानी नई हो उठी;
कि रसहीन सारे बरस रसभरे हो गये—
जब तुम्हारी छटा भा गई।
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई!
घनों में मधुर स्वर्ण-रेखा मिली
नयन ने नयन रूप देखा, मिली—
पुतलियों में डुबा निज नजर की कलम
नेह के पृष्ठ को चित्रलेखा मिली;
बीतते-से दिवस लौट कर आ गये
बालपन ले जवानी सँभल आ गई।
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई!
तुम मिले तो प्रणय पर छटा छा गई!
चुम्बनों, साँवली-सी घटा छा गई,
एक युग, एक दिन, एक पल, एक क्षण
पर गगन से उतर चंचला, आ गई!
प्राण का दान दे, दान में प्राण ले,
अर्चना की अधर चाँदनी छा गई।
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई!
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 09:45 PM
गीत रच कर जब उठा तब स्वप्न बोले—’और बोलो’,
कृष्ण की कालिन्दिनी बोली—’उमड़’ मुझमें डुबो लो!
प्रणय से मीठी मधुर! जब बेड़ियाँ झंकार उट्ठीं
शूलियों ने माँग भर कर कहा, जी में प्यार घोलो।
मैं पथिक युग के जुएँ में दाँव खाकर, स्वप्न धोकर,
आज दिल्ली के किले में तीन जलते दीप बोकर,
सहस अग्नि-स्फुलिंग, बंधन में बँधे, असहाय लख कर,
और चालिस कोटि-वासिनि को निपट वन्ध्या निरख कर—
कह रहा हूँ, हाय तीर--
कमान भी बोझिल हुए!
आज चालिस कोटि के
पशु-प्राण भी बोझिल हुए!
अब न युग से कह सकोगे क्यों लगा दी आग घर में?
गाँव मुर्दों का उजाड़ा, क्यों जगा दी आग घर में?
आज आँखों का नशा चढ़-चढ़, भुजा पर बोलता है,
और अमरों की अखण्ड वसुन्धरा पर डोलता है!
और यह तारुण्य है, ठिठका,--तमाशा देखता है,
जोश में आया कि लिख डाला—“महान विशेषता है!”
प्राण देकर, प्राण लेकर, प्राण का खिलवाड़ सीखें,
हम अपाहिज हैं न, जो माँगें जगत से और भीखें।
पूर्वजों के गीत झूठे
किये प्राणों को बचाकर,
रोटियों के राग गाये,
क्षुधित पुतलों को नचाकर।
बाढ़ आई निम्नगाओं में, न हममें बाढ़ आई;
ग्रीष्म ये लाईं न आँखें, ये फक़त आषाढ़ लाईं!
चल ’सियार किशोर’ सिंहों का ’किले’ में मरण देखें,
तेज भाषा बोल, सब वीरत्व का, आवरण देखें!
और फिर चुपचाप, नौकर हो, भरेगा पेट अपना!
“पीढ़ियाँ बन्धनमयी हैं” भूल वह निःसार सपना!!
प्राण का धन, तू छुपाये रह अमर रंगरेलियों में,
भूल जा माँ बन्दिनी को रोज की अठखेलियों में!
किन्तु अब उस क्षितिज पर
बेमूँछ की सेना निरख तू,
और अपने प्रणय के शव
प्रलय-रथ के तले रख तू।
मातृ-भू के बोझ, जिस दिन सूलियों ने प्राण पाया!
उस दिवस भी क्या तुझे भारत अखण्ड न याद आया?
याद भर आता रहे यह लाल टीका+!
तरुण अपनाता रहे यह लाल टीका!!
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 09:50 PM
आग उगलती उधर तोप, लेखनी इधर रस-धार उगलती,
प्रलय उधर घर-घर पर उतरा, इधर नज़र है प्यार उगलती!
उधर बुढ़ापा तक बच्चा है, इधर जवानी छन-छन ढलती,
चलती उधर मरण-पथ टोली, ’उनपर’ इधर तबीयत चलती!
भुजदण्डों पर उधर भवानी, इधर जमाना पतित तर्क का,
जग ने ठीका दे रक्खा है, उधर स्वर्ग का, इधर नर्क का!
हाय सूर से सीख न पाये
दो सूजी से आँखें देना
विद्रोहिनी विजयिनी मीरा
कहती किसे? जहर पी लेना?
ओ बेमूछों के बलिपन्थी! आ इस घर में आग लगा चल,
ठोकर दे, कह युग! चलता चल, युग के सर चढ़, तू चलता चल!
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 09:50 PM
उनके सपने हरियाता मेरी सूझों का पानी
मुझसे बलि-पन्थ हरा है, मुझ पर दुनियाँ दीवानी!
एकान्त हमारा, विधि से विद्रोहों की मस्ती है,
उन्माद हमारा, शत-शत अरमानों की बस्ती है।
हमने दुनियाँ खो डाली, तब जग ने हमको पाया!
हम अपने पर हँस उट्ठे, तब कहीं जगत रो पाया!
ईंटों, पाषाणों का नर, ईमान न जीने देगा,
यह लाशों का रखवाला, नव-प्राण न जीने देगा!
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 09:51 PM
मैं भावों की पटरानी,
क्या समझेगा मानव गरीब, मेरी यह अटपट बानी?
श्रम के सीकर जब ढुलक चले,
अरमान अभागे झुलस चले,
तुम भूल गये अपनी पीड़ा, जब मेरी धुन पहचानी।
जिस दिन तुम भव पथ डोल चले,
विष का रस जी में घोल चले,
तब मैं निज डोरी खींच उठी, तुममें जग उठी जवानी।
तुमने संकट पथ वरण किये,
कारागृह कण्ठाभरण किये,
मैंने जब मृदु दो चरण दिये, तुमने बन्धन छवि जानी।
जी के हिलकोरों के शिकार
दृग मूँद उठे तुम सहस बार
तब चमका कर पथ के फुहार, मैं बनी रूप की रानी।
तुम थकन आँसुओं घोल-घोल
कर उठे मौत से मोल-तोल
तब लेकर मैं अपना हिंडोल, अमृत झर बनकर मानी।
तुम बन शब्दों के आल-जाल,
आराध उठे गति-हरण-काल
तब मैंने मुरली ले फूँकी, गति-पथ पर प्रगति-कहानी।
मैं भावों की पटरानी।
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 09:51 PM
स्मृति के मधुर वसंत पधारो!
शीतल स्पर्श, मंद मदमाती
मोद-सुगंध लिये इठलाती
वह काश्मीर-कुंज सकुचाती
निःश्वासों की पवन प्रचारो
स्मृति के मधुर वसंत पधारो!
तरु दिलदार, साधना डाली
लिपटी नेह-लता हरियाली
वे खारी कलिकाएँ उन पर
तोड़ूँगी, ऋतुराज उभारो
स्मृति के मधुर वसंत पधारो!
तोड़ूँगी? ना, खिलने दूँगी
दो छिन हिलने-मिलने दूँगी
हिला-डुला दूँगी शाखाएँ
चुने विश्व-परिवार उचारो
स्मृति के मधुर वसंत पधारो!
आते हो? वह छबि दरसा दो
रूठा हृदय-चोर हरषा दो
तोड़-तोड़ मुकता बरसा दो
डूबूँ-तैरूँ, सुध न बिसारो
स्मृति के मधुर वसंत पधारो!
दोनों भुजा पकड़ ले पापी!
कलपा मत घनश्याम! कलापी,
कर दो दशों दिशा पागलिनी
ज्ञान-जरा-जर्जरता टारो
स्मृति के मधुर वसंत पधारो!
भीजे अम्बर वाले ख्याली
चढ़ तरुवर की डाली डाली
उड़े चलो मेरे वनमाली!
पागलिनी कह, वहाँ पुकारो
स्मृति के मधुर वसंत पधारो!
नहीं चलो हिल-मिलकर झूलें
बने विहंग, झूलने झूलें
भूलें आप, भुला दें घातक!
भू-मंडल पर स्वर्ग उतारो
स्मृति के मधुर वसंत पधारो!
नहीं, चलो हम हों दो कलियाँ
मुसक-सिसक होवे रंगरलियाँ
राष्ट्रदेव रँग-रँगी सँभालो
कृष्णार्पण के प्रथम पधारो
स्मृति के मधुर वसंत पधारो!
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 09:51 PM
वृक्ष, वल्लरि के गले मत—
मिल, कि सिर चढ़ जायगी यह,
और तेरी मित भुजाओं—
पर अमित हो छायगी यह।
हरी-सी, मनभरी-सी, मत—
जान, रुख लख, राह लख तू
मधुर तेरे पुष्प-दल हों,
कटु स्वफल लटकायगी यह।
भूल है, पागल, गिरी तो
यह न चरणों पर रहेगी
निकट के नव वृक्ष पर,
नव रंगिणी बल खायगी यह।
वृक्ष, तेरे शीश पर के
वृक्ष से लाचार है तू?
किन्तु तेरे शीश से, उस
शीश पर भी जायगी यह।
यह समर्पण-ऋण चुकाना—
दूर, मानेगी न छन भर
तव चरण से खींच कर—
रस और को मँहकायगी यह।
मत कहो इसको अभागिन,
यह कभी न सुहाग खोती,
लिपटना इसकी विवशता—
है लिपटती जायगी यह।
बस निकट भर ही पड़े
कि न बेर या कि बबूल देखे
आम्र छोड़ करील पर
आगे बढ़ी ही जायगी यह।
तू झुका दे डालियाँ चढ़ पाय
फिर क्यों शीश पर यह;
फलित अरमानों भरी
तेरे चरण आजायगी यह।
फेंक दे तू भूमि पर सब
फूल अपने और इसके
हुआ कृष्णार्पण कि तेरी
बाँसुरी बन जायगी यह!
प्यार पाकर सिर चढ़ी, तो
प्यार पाकर सूखती है,
कलम कर दे लिपटना
फिर सौ गुनी लिपटायगी यह।
नदी का गिरना पतन है
वल्लरी का शीश चढ़ना,
पतन की महिमा बनी तब
शीश पर हरियायगी यह।
मत चढ़ा चंदन चरण पर
मत इसे व्यंजन परोसे
कुंभिपाकों ऊगती आई;
वहीं फल लायगी यह।
सहम मत, तेरे फलों का
कौन-सा आलम्ब बेली?
तू भले, फल दे, न दे,
अपनी बहारों आयगी यह।
किस जवानी की अँधेरी--
में बढ़े जा रहे दोनों
बन्द कलियाँ, बन्द अँखियाँ
कौन-सा दिन लायगी यह।
फेंक कर फूलों इरादे,
भूमि पर होना समर्पित,
सिर उठाकर पुण्य भू का
पुण्य-पथ समझायगी यह।
एक तेरी डालि छूटे,
दूसरी गह ले गरब से
डालि जो टूटी, कि अबला--
सिद्ध कर दिखलायगी यह।
मेह की झर है न तू, जो--
मौसमों में बरस बीते,
नेह की झर सूखकर
तुझको अवश्य सुखायगी यह।
तू तरुणता का सँदेशा
भूमि का विद्रोह प्यारे,
शीश पर तू फूल ला, बस
चरण में बस जायगी यह।
या कि इसको हृदय से
ऐसी लपेट की दाँव भूले
सूर्य की संगिनि दुपहरी-
सी स्वयं ढल जायगी यह।
रे नभोगामी, न लख तू
रूप इसका, रंग इसका,
तू स्वयं पुरुषार्थ दिखला
तब कला बन जायगी यह।
लता से जब लता लिपटे?
गर्व हो? किस बात का हो?
तू अचल रह, स्वयं चल कर
ही चरण पर आयगी यह।
भूमि की इच्छा, मिलन की-
साध, मिटने की प्रतीक्षा-
तब अमित बलशालिनी है
जब तुझे पा जायगी यह!
चढ़न है विश्वास इसका,
लिपटना इसकी परमता,
जो न चढ़ पाई कहीं तो
नष्ट मुरझा जायगी यह।
पहिन कर बंधन, न बंधन
में इसे तू जान गाफ़िल,
जिस तरफ फैली कि नव-
बन्धन बनाती जायगी यह।
डालियाँ संकेत विभु के
वल्लरी उन्माद भाषा,
लिपटने के तुक मिलाते
छन्द गढ़ती जायगी यह।
और जो होना समर्पण है,
इसी की साध बनकर
शीश ले इसके फलों को
तब बहारों आयगी यह।
INDIAN_ROSE22
21-03-2015, 10:26 PM
युग तुम में, तुम युग में कैसे झाँक रहे हो बोलो?
उथल-पुथल तब हो कि समय में जब तुम जीवन घोलो।
तुम कहते हो बलि से पहले अपना हृदय टटोलो,
युग कहता है क्रान्ति-प्राण! पहिले बन्धन तो खोलो।
तेरी अँगुली हिली, हिल पड़ा
भावोन्मत्त जमाना
अमर शान्ति ने अमर
क्रान्ति अवतार तुझे पहचाना।
तू कपास के तार-तार में अपनापन जब बोता,
राष्ट्र-हृदय के तार-तार में पर वह प्रतिबिम्बित होता,
झोपड़ियों का रुदन बदल देता तू मुसकाहट में,
करती है श्रृंगार क्रान्ति तेरी इस उलट-पुलट में।
उस-सा उज्ज्वल, उस-सा
गुणमय, लाज बचाने वाला
है कपास-सा परम-मुक्ति का
तेरा ताना-बाना।
अरे गरीब-निवाज, दलित जी उठे सहारा पाया,
उनकी आँखों से गंगा का सोता बह कर आया,
तू उनमें चल पड़ा राष्ट्र का गौरव पर्व-मनाकर
उन आँखों में पैठ गया तू अपनी कुटी बनाकर।
तुझे मनाने कोटि-कोटि
कंठों ने क्या-क्या गाया
जो तुझको पा सका--
गरीबों के जी में ही पाया।
है तेरा विश्वास गरीबों का धन, अमर कहानी--
तो है तेरा श्वास, क्रान्ति की प्रलय लहर मस्तानी।
कंठ भले हों कोटि-कोटि, तेरा स्वर उनमें गूँजा
हथकड़ियों को पहन राष्ट्र ने पढ़ी क्रान्ति की पूजा।
बहिनों के हाथों जगमग है
प्रलय-दीप की थाली;
और हमारे हाथों है--
माँ के गौरव की लाली।
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 02:20 PM
गो-स्तनों पर घूमने वाली
अँगुलियाँ कह रही थीं!
दूध में मीठा न डालो
उसे अपमानित न कर दो,
प्राण ’थर’ बन तैरते हैं
उन्हें निष्प्राणित न कर दो।
ले मलाई से दृगों के पोर,
गो-स्तन खींच लाये,
बँधे धेनु-किशोर का
अधिकार लूट, उलीच लाये।
दूध की धारा मृदंगिनि
जन्म का स्वर रुदन बोली
कंकणों की मधुर ध्वनि ने
वलय-मयी मिठास घोली।
विवश उनकी रात की
बाँधी, उसाँसें छूटती थीं
दूध की हर बूँद पर, तड़पन
लिये थी, टूटती थी।
और माटी की मटकिया
गोद पर ’घन’ सी बनी थी,
मधुर उजले प्राण भर कर
प्रणय के मन-सी बनी थी।
वन्य-टेकड़ियाँ छहर
दुग्धायमान गुँजार करतीं,
विश्व-बालक को पिलाने
दुग्ध-पारावार भरतीं।
उषा का उजला अँधेरा
तारकों का रूप लेकर
दूध की हर बूँद पर
कुर्बान था, तारुण्य देकर।
दूर पर ठहरे बिना वह
विन्ध्य झरना झर रहा था,
मथनियों के बिन्दु-शिशु-मुख
बोल अपने भर रहा था।
गगन से भूलोक तक यह
अमृत-धारा बह रही थी।
गो-स्तनों पर घूमने वाली
अँगुलियाँ कह रही थीं!
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 02:20 PM
किस तरुणी के प्रथम-हृदय-अर्पण के साहस-सी ये साँसें,
और तरुण के प्रथम-प्रेम-सी जमुहाती, अटपटी उसाँसें,
गई साँस के लौट-लौट आने का यह
करोड़वाँ-सा क्षण
वह क्षण जो बनने आया है
परम याद के कर का कंकण।
टेढ़े पल,
उलझी घड़ियाँ,
काले दिन, ये--
मट्मैली रातें;
बन्दन, बलि, बन्दीगृह जिन पर
बोते रहे विषम सौगातें।
उन साँसों की एक डोर का
एक छोर,
बरस-गाँठ
तेरी यह बरस-गाँठ
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 02:20 PM
ऐ मेरी प्रेरणा-बीन के वादक!
बे जाने जब जब, बजा चुके हो,
जगा चुके हो, सोते फितनों को जब-तब,
किन चरणों में आज उन्हें रक्खूँ?
किसका अपमान करूँ?
किसकी ध्वनियों को दुहराऊँ
हृदय हलाहल-दान करूँ?
आया हूँ मैं नाथ, तुम्हारे कण्ठ कालिमा देने को!
और तुम्हारा वैभव लेकर गीत तुम्हारा होने को।
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 02:20 PM
पर्वतमालाओं में उस दिन तुमको गाते छोड़ा,
हरियाली दुनिया पर अश्रु-तुषार उड़ाते छोड़ा,
इस घाटी से उस घाटी पर चक्कर खात छोड़ा,
तरु-कुंजों, लतिका-पुंजों में छुप-छुप जाते छोड़ा,
निर्झरिनी की गोदी के
श्रृंगार, दूध की धारा,--
फेंकते चले जाते हो
किस ओर स्वदेश तुम्हारा?
लतिकाओं की बाहों में रह-रह कर यह गिर जाना!
पाषाणों के प्रभुओं में बह-बह कर चक्कर खाना,
फिर कोकिल का रुख रख कर कल-कल का स्वर मिल जाना
आमों की मंजरियों का तुम पर अमृत बरसाना।
छोटे पौधों से जिस दिन
उस लड़ने की सुधि आती
तप कर तुषार की बूँदें
उस दिन आँखों पर छातीं।
किस आशा से, गिरि-गह्वर में तुम मलार हो गाते,
किस आशा से, पाषाणों पर हो तुषार बरसाते,
इस घाटी से उस घाटी में क्यों हो दौड़ लगाते,
क्यों नीरस तरुवर-प्रभुओं के रह-रह चक्कर खाते?
किस भय से हो, वन--
मालाओं से रह-रह छुप जाते,
क्या बीती है, करुण-कंठ से
कौन गीत हो गाते?
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 02:21 PM
अरे निवासी अन्तरतर के
हृदय-खण्ड जीवन के लाल
त्रास और उपहास सभी में
रहा पुतलियाँ किये निहाल।
संकट में वह गोद, मोद कर
जहाँ टपकता धन्य रहा,
मार-मार में गिर न हठीले
निर्जन है, मैं वन्य रहा।
ठहर जरा तुझ से प्यारे के
चरण कमल धुल जाने दे
और जोर से सिसक सकूँ
वे मंजुल घड़ियाँ आने दे।
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 02:21 PM
जागृति के प्रलय-पुंज
गति के गति-दाता।
ऐ गुणेश ऐ गणेश
ऐ महेश के निदेश
श्वेत केश श्वेत वेश
हिमगिरि-सा श्वेत देश,
झर झर निर्झर,
नगाधिराज के अशेष लेष!
ऐ महान, ऐ सुजान,
तांडव-पति-दिव्य-दान,
तारक-त्रैलोक्य,
क्रान्ति कारिणि मति-दाता।
जागृति के प्रलय-पुंज
गति के गति-दाता।
तू ’तुलसी’ तु ही ’सूर’
हर ले क्षिति का गुरूर,
तुझ में बोला ’रवीन्द्र’
’तुकाराम’ के हुजूर
’मीरा’ के मनमोहन
सहजो के नाथ-नाथ
पायें तेरा ’प्रसाद’
कर ’कबीर, को सनाथ
’मैथिलि’ तेरी जबान
’हरि’ का तू मधुर गान
तीर तू कमान तू
मैं "लक्ष्य-बेध" गाता।
जागृति के प्रलय-पुंज
गति के गति-दाता।
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 02:21 PM
चट जग जाता हूँ, चिराग को जलाता हूँ,
हो सजग तुम्हें मैं देख पाता हूँ कि पैठे हो;
पास नहीं आते, हो पुकार मचवाते,
तकसीर बतलाओ क्यों यों बदन उमैठे हो?
दरश दिवाना, जिसे नाम को ही बाना,
उसे शरण विलोकते भी देव-देव ऐंठे हो;
सींखचों में घूमता हूँ, चरणों को चूमता हूँ,
सोचता हूँ, मेरे इष्टदेव पास बैठे हो।
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 02:21 PM
आते-आते रह जाते हो--जाते-जाते दीख रहे,
आँखे लाल दिखाते जाते, चित्त लुभाते दीख रहे,
दीख रहे, पावनतर बनने की धुन के मतवाले-से,
दीख रहे, करुणा-मन्दिर-से प्यारे देश निकाले-से,
दोषी हूँ, क्या जीने का
अधिकार नहीं दोगे मुझको,
होने को बलिहार
पदों का प्यार नहीं दोगे मुझको?
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 02:22 PM
ये साधन के बाँट साफ हैं, ये पल्ले कुटिया के,
श्रम, चिन्तन, गुन-गुन के ये गुन बँधे हुए हैं बाँके,
जितने मन पर मनमोहन अपना दर्शन दिखलाता
कितनी बार चढ़ा जाता हूँ, उतना हो नहिं पाता।
वे बोले जीवन दाँवों से
मैली दाईं बाजू,
अन्धे पूरा भार तुले कब
कानी लिये तराजू।
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 02:22 PM
कलम चल पड़ी, और आज लिखने बैठी हैं युग का जीवन,
विहँस अमरता आ बैठी त्योहार मनाने मेरे आँगन।
पानी-सा कोमल जीवन
बादल-सा बलशाली हो आया,
भू पर मेरी तरुणाई का
हँस-हँस कर अमरत्व सजाया।
जगत ललक कर दौड़ा मेरी
अंगुलियों पर चक्कर खाने,
मेरी साँसों, समय आ गया
युग-प्रभु का अभिमान सजाने।
अमर-अमर कह, झर-झर झरते, बादल ने अभिषेक सजाया,
अमर हो पड़ीं साधें, अमर, अमर जीवन का रस चढ़ आया।
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 04:35 PM
बिन छेड़े, जी खोल सुगन्धों को जग में बिखरा दूँगा;
उषा-राग पर, दे पराग की भेंट, रागिनी गा दूँगा;
छेड़ोगे, तो पत्ती-पत्ती चरणों पर बिखरा दूँगा;
संचित जीवन साध कलंकित न हो, कि उसे लुटा दूँगा;
किन्तु मसल कर सखे! क्रूरता--
की कटुता तू मत जतला;
मेरे पन को दफना कर
अपनापन तू मुझ पर मत ला।
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 04:36 PM
गौरव-शिखरों! नहीं, समय की मिट्टी में मिलवाओ,
फिर विन्ध्या के मस्तक से करुणा-घन हो झरलाओ,
पृथिवी के आकर्षण के प्रतिकूल उठूँ, दिन लाओ,
जल से प्रथम मुझे आतप की किरणों में नहलाओ!
कई गुना होकर अर्पित
यह मिट्टी में मिल जाना;
हरियाला मस्ताना दाना
कहे कि तुझको जाना।
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 04:36 PM
तू चाहे मुझको हरि, सोने का मढ़ा सुमेरु बनाना मत,
तू चाहे मेरी गोद खोद कर मणि-माणिक प्रकटाना मत,
तू मिट जाने तक भी मुझमें से ज्वालाएँ बरसाना मत,
लावण्य-लाड़िली वन-देवी का लीला क्षेत्र बनाना मत,
जगती-तल का मल धोने को
भू हरी-हरी कर देने को
गंगा-जमुनाएँ बहा सकूँ
यह देना, देर लगाना मत।
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 04:36 PM
अन्धकार की अगवानिन हँस कर प्रभात सी फूली है,
यह दासी धनश्याम काल की ले चादर बूटों वाली
उढ़ा नाथ को, यह अनाथ होने के पथ में भूली है!
गोधूली है।
टुन-टुन क्वणित, कदम्ब लोक से, ले गायें धीमे-धीमे
रज-पथ-भूषित जग-मुख कर, केसर आँखों जब झूली है।
गोधूली है।
नभ चकचौंधों से घबड़ाती, रवि से कुछ रूठी-रूठी;
नभ-नरेश को उढ़ा, स्वयं ही आत्म-घात-पथ भूली है
डाह भरी के कर में दे दी, तम की सूली है।
गोधूली है।
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 04:37 PM
वे दिन भला किया जो भूले।
दृग-जल-जमुना बढ़ी किन्तु श्यामल वे चरण न पाये,
कोटि-तरंग-बाँह के पंथी, तट-मूर्च्छित फिर आये,
अब न अमित! विभ्रम दे, चल--
चल सखि कालिन्दी कूलें,
वे दिन भला किया जो भूले।
गति ने आकर कभी निहोरा, कभी प्रगति ने पाया,
पंथी! तुम उल्लास भर उठे, विकल नियति ने गाया।
तुमने हृदय निहाल कर दिया
दे सूली के झूले,
वे दिन भला किया जो भूले।
विश्वासों के विष-प्याले दे मधुर! प्रणय-घन पाले,
क्यों ढूँढो हो लाल, पुतलियों पर, निज छबि के छाले!
अब राधा से कहो न माटी
की मूरत पर फूले!
वे दिन भला किया जो भूले।
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 04:37 PM
कहानी बोल नये सपने!
अरी अभागिन, पहिले ही
क्यों ओंठ लगे कँपने?
कहानी बोल नये सपने!
देख तो, प्राण में एक तूफान-सा
लोटता-सा चला जा रहा है कहाँ?
व्यक्ति-वामन, उठा आ रहा पैर ले
एक रक्खे यहाँ, एक रक्खे वहाँ;
श्रृंखला सागरों को पिन्हाता हुआ-सा
गगन खेल-घर-सा बनाता हुआ,
हर लहर में नया स्वाद लाता हुआ
हर बहर में नया जग बनाता हुआ-
पंख खोल अपने
कहानी बोल नये सपने!
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 04:37 PM
यह लाली है,
सरकार आपकी कृपा-पूर्ण जंजीरों के घर्षण से, निकले मोती हैं।
रखवाली है,
हर सिसक और चीत्कारों पर तस्वीर तुम्हारी होती है।
मत खड़े रहो,
ऐ ढीठ रुकावट होती है साँसों के आने-जाने में,
तुम में अरमाँ,
अरमानों में तुम गुँथो नहीं, क्या सुख है धोखा खाने में?
चुम्बन में नहीं, पधारो तुम
हर रोज उदार! प्रहारों में;
त्योहार? सदा सूली के दिन
मनते आये त्योहारों में।
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 04:38 PM
महमान मेरे नन्हे से ओ महमान!
हम दोनों का मेल है तू ही,
जग का जीवन-खेल है तू ही,
नेह सींखचों जेल है तू ही,
ओ अम्मा के राजदुलारे
साजन की मुसकान।
महमान मेरे नन्हे-से ओ महमान!
माँ की सब तरुणाई वारी,
’उनकी’ लापरवाही वारी,
नाना की धन-दौलत वारी,
ओ गरीब के अमीर छोरे
दुख सुख की पहचान।
महमान मेरे नन्हे-से ओ महमान!
हरियाले दो मन पर फूला,
हम दो खम्भों पर तू झूला,
अरे कौन-सा रस्ता भूला,
नाना-सा धनवान, पिता-सा--
या होगा नादान!
महमान मेरे नन्हे-से ओ महमान!
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 04:38 PM
क्यों स्वर से ध्वनियाँ उधार लूँ?
क्यों वाचा के हाथ पसारूँ?
मेरी कसक पुतलियों के स्वर,
बोलो तो क्यों चरण दुलारूँ?
स्वर से माँगूँ भीख--
कि हिलकोरों में हूक उठे,
वाचा से गुहार करता हूँ
देवि, कलेजा दूख उठे।
बिना जीभ के श्यामा मेरी
उभय पुतलियाँ बोल रही हैं,
बोलों से जो रूठ चुके
ऐसे रहस्य ये खोल रहीं हैं।
क्यों ऊँचे उड़ने को माँगूँ,
मैं कोयल के पर अनमोले?
जब कि वायु में मेरे सपने
अग-जग भूमण्डल पर डोले।
कौन आसरा ले कि सुरभि के--
स्तन से उतरे अमृत-धारा,
जब कि फुदक उट्ठे बछड़ा वह
कामधेनु का राज-दुलारा।
भले ओंठ हों बन्द किन्तु--
अन्तर की गाँठें खुल जाती हैं,
क्या सावन, क्या फागन--
जब सूझें बारह-मासा गाती हैं!
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 04:38 PM
धूल लिपटे हुए हँस-हँस के गजब ढाते हुए,
नंद का मोद यशोदा का दिल बढ़ाते हुए,
दोनों को देखता, दोनों की सुध भुलाते हुए,
बाल घुँघरालों को मटका कर सिर नचाते हुए।
नंद जसोदा, जो वहाँ बैठे थे बतलाते हुए,
साँवला दीख पड़ा हँसता हुआ, आते हुए।
नन्द ने सोचा,--जरा पास तो आजाने दूँ,
जाने वह और न यशोदा चट चुम्मा लूँ,
खींच यशोदा ने लिया, नाथ मुझसे बातें करें,
चूम लूँ कान्ह को चुपचाप कि जब वह गुजरे।
श्याम ने, अपनी तरफ देख ली दोनों की नजर
कुछ गुनगुनाते हुए आने लगा वह नटवर।
दोनों तैयार हैं, किस ओर को पहले झपटूँ?
बाप के कन्धे, या मैय्या के हिये से लपटूँ!
पाया नजदीक, चूमने को बढ़ पड़े दोनों,
प्यार का जोर था ऐसे उमड़ पड़े दोनों--
कान्ह ने धोखा दिया, ताली बजा, पीछे खिंचा
जोर से बढ़ते हुए सर से लड़ पड़े दोनों।
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 04:41 PM
उठ-उठ तू, ओ तपी, तपोमय जग उज्ज्वल कर
गूँजे तेरी गिरा कोटि भवनों में घर-घर
गौरव का तू मुकुट पहिन
युग के कर-पल्लव
तेरा पौरुष जगे, राष्ट्र--
हो, उन्नत अभिनव।
तेरे कन्धों लहरावे, प्रतिभा की खेती,
तेरे हाथों चले नाव, जग-संकट खेती।
तुझ पर पागल बने आज उन्मत्त जमाना,
तेरे हाथों बुने सफलता ताना-बाना।
तू युग की हुंकार,
अमर जीवन की वाणी,
तेरी साँसें अमर हो उठें,
युग-कल्याणी।
तेरा पहरेदार, विन्ध्य का दक्षिण उत्तर,
तेरी ही गर्जना, नर्मदा का कोमल स्वर।
तेरी जीवित साँस आज तुलसी की भाषा,
तेरा पौरुष सतत अमर जीवन की आशा।
जाग-जाग उठ तपी तुझे
जग का आमंत्रण
विभु दे तुझको उठा
सौंप कर अमृत के कण।
तेरी कृति पर सजे हिमालय रजत-मुकुट-सा,
सिन्धु, इरावति बने सुहावन वैभव घट-सा,
गंगा-जमुना बहें तुम्हारी उर-माला-सी,
विहरित हरित स्वदेश करें, कृषि-जन-कमला-सी।
कमर-बन्द नर्मदा बने
उठ सेना-नायक।
शस्त्र-सज्जिता तरल तापती
बने सहायक।
तेरी असि-सी लटक चलें कृष्णा कावेरी,
आज सृजन में होड़ लगे विधना से तेरी।
लिख-लिख तू ओ तपी जगा उन्मत्त जमाना
जिसने ऊँचा शीश किये जग को पहचाना।
तू हिमगिरि से उठा
कुमारी तक लहराया,
रतनाकर ले आज
चरण धोने को आया।
उठ ओ युग की अमर-साँस, कृति की नव-आशा,
उठ ओ यशोविभूति, प्रेरणा की अभिलाषा,
तेरी आँखों सजे विश्व की सीमा-रेखा,
अंगुलियों पर रहे, जगत की गति का लेखा।
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 04:41 PM
मेरे युग-स्वर! प्रभु वर दे, तू धीरे-धीरे गाये।
चुप कि मलय मारुत के जी में शोर नहीं भर जाये,
चुप कि चाँदनी के डोरों को शोर नहीं उलझाये,
मेरे युग-स्वर! प्रभु वर दे, तू धीरे-धीरे गाये।
चुप कि तारकों की समाधि में दूख उठेगा जय-रव,
चुप कि चाँद में बिदा क्षणों की दर्शन-भूख न संभव।
उठो मधुर! दरवाजे खोलो, वातायन खुल जाये,
सदियों की उजड़ी साँसों में आज प्राण-प्रभु आये,
मेरे युग-स्वर! प्रभु वर दे, तू धीरे-धीरे गाये।
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 04:42 PM
हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया।
सपना है, जादू है, छल है ऐसा
पानी पर बनती-मिटती रेखा-सा,
मिट-मिटकर दुनियाँ देखे रोज़ तमाशा।
यह गुदगुदी, यही बीमारी,
मन हुलसावे, छीजे काया।
हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया।
वह आया आँखों में, दिल में, छुपकर,
वह आया सपने में, मन में, उठकर,
वह आया साँसों में से रुक-रुककर।
हो न पुरानी, नई उठे फिर
कैसी कठिन मोहनी माया!
हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया।
INDIAN_ROSE22
23-03-2015, 04:43 PM
वीर सा, गंभीर-सा है यह खड़ा,
धीर होकर यों अड़ा मैदान में,
देखता हूँ मैं जिसे तन-दान में,
जन-दान में, सानंद जीवन-दान में।
हट रहा है दंभ आदर-प्यार से,
बढ़ रहा जो आप अपनों के लिए,
डट रहा है जो प्रहारों के लिए,
विश्व की भरपूर मारों के लिए।
देवताओं को यहाँ पर बलि करो
दानवों का छोड़ दो सब दु:ख भय;
"कौन है?" यह है महान मनुष्य़ता
और, है संसार का सच्चा हृदय।
क्यों पड़ीं परतंत्रता की बेड़ियाँ?
दासता की हाय हथकड़ियाँ पड़ीं
न्याय के मुँह बन्द फाँसी के लिए,--
कंठ पर जंजीर की लड़ियाँ पड़ीं।
दास्य-भावों के हलाहल से हरे!
भर रहा प्यारा हमारा देश क्यों?
यह पिशाची उच्च-शिक्षा-सर्पिणी
कर रही वर वीरता निःशेष क्यों?
वह सुनो आकाश वाणी हो रही--
"नाश पाता जायगा तब तक विजय"--
वीर?--’ना’, धार्मिक? ’नहीं’ सत्कवि? ’नहीं’--
"देश में पैदा न हों जब तक ’हृदय’"।
देश में बलवान भी भरपूर हैं
और पुस्तक-कीट भी थोड़े नहीं,
हैं अमित धार्मिक ढले टकसाल के
पर किसी ने भी हृदय जोड़े नहीं।
ठोकरें खाती मनों की शक्तियाँ
’राम मूर्ति’ बने खुशामद कर रहे,
पूजते हैं,--देवता द्रवते नहीं,
दीन-दब्बू बन करोड़ों मर रहे।
’हे हरे! रक्षा करो’--यह मत कहो
चाहते हो इस दशा पर जो विजय,
तो उठो, ढूँढो, छुपा होगा वहीं
राष्ट्र का बलि, देश का ऊँचा ’हृदय’।
फूल से कोमल, छबीला रत्न से,
वज्र से दृढ़, शुचि-सुगंधी यज्ञ से,
अग्नि से जाज्वल्य, हिम से शीत भी,
सूर्य से देदीप्यमान, मनोज्ञ से।
वायु से पतला, पहाड़ों से बड़ा
भूमि से बढ़कर क्षमा की मूर्ति है;
कर्म का अवतार-रूप-शरीर जो-
श्वास क्या, संसार की वह स्फूर्ति है;
मन महोदधि है, वचन पीयूष है
परम निर्दय है, बड़ा भारी सदय;
कौन है? है देश का जीवन यही,--
और है वह जो कहाता है ’हृदय’।
सृष्टि पर अति कष्ट जब होते रहे,
विश्व में फैली भयानक भ्रान्तियाँ
दण्ड, अत्याचार, बढ़ते ही गये,
कट गये लाखों मिटी विश्रान्तियाँ,
गद्दियाँ टूटीं असुर मारे गये
किस तरह? होकर करोड़ों क्रान्तियाँ,
तब कहीं है पा सकी मातामही
मृदुल-जीवन में मनोहर शान्तियाँ।
बज उठीं संसार भर की तालियाँ
गालियाँ पलटीं, हुई ध्वनि, जयति जय,
पर हुआ यह कब? जहाँ दीखा कभी
विश्व का प्यारा कहीं कोई ’हृदय’।
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