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View Full Version : एक झील थी बर्फ़ की / लाल्टू



INDIAN_ROSE22
29-03-2015, 08:07 PM
http://www.kavitakosh.org/kk/images/thumb/d/d4/Laltu.jpg/140px-Laltu.jpg
जन्म: 10 दिसंबर 1957


उपनाम
लाल्टू


जन्म स्थान
कोलकाता, ��*ारत


कुछ प्रमुख
कृतियाँ
एक झील थी बर्फ़ की (1990), डायरी में 23 अक्टूबर (2004) दोनों कविता संग्रह। ��*ैया ज़िन्दाबाद (बाल कविताएँ)। घुघनी (कहानी संग्रह)


विविध
हिन्दी कविता में एक चर्चित नाम। रूसी ��*ाषा में कविताओं के अनुवाद। ख़ुद ��*ी अंग्रेज़ी से लगातार अनुवाद करते हैं।




laltu ji kavitaiye padhiye aap yaha pe
Read here laltu's Poem

INDIAN_ROSE22
29-03-2015, 08:09 PM
1.

पहाड़ को कठोर मत समझो
पहाड़ को नोचने पर
पहाड़ के आँसू बह आते हैं
सड़कें करवट बदल
चलते-चलते रुक जाती हैं

पहाड़ को
दूर से देखते हो तो
पहाड़ ऊँचा दिखता है

करीब आओ
पहाड़ तुम्हें ऊपर खींचेगा
पहाड़ के ज़ख्मी सीने में
रिसते धब्बे देख
चीखो मत

पहाड़ को नंगा करते वक़्त
तुमने सोचा न था
पहाड़ के जिस्म में भी
छिपे रहस्य हैं।

2.

इसलिए अब
अकेली चट्टान को
पहाड़ मत समझो

पहाड़ तो पूरी भीड़ है
उसकी धड़कनें
अलग-अलग गति से
बढ़ती-घटती रहती हैं

अकेले पहाड़ का ज़माना
बीत गया
अब हर ओर
पहाड़ ही पहाड़ हैं।

3.

पहाड़ों पर रहने वाले लोग
पहाड़ों को पसंद नहीं करते
पहाड़ों के साथ
हँस लेते हैं
रो लेते हैं
सोचते हैं
पहाड़ों पर आधी ज़िंदगी गुज़र गई
बाकी भी गुज़र जाएगी।

INDIAN_ROSE22
29-03-2015, 08:10 PM
वह भी कह गई थी
दो एक कठिन अंग्रेजी शब्दों से
परख लिया था उसने मुझे
फिर कह गई
खत लिखेगी


छोटी सी बात
उसका कहना
सुबह शाम
हँसना रोना लड़ना खेलना
जैसी छोटी सी घटना


फिर भी सोचता हूँ
वह कह गई
पर अभी तक नहीं लिखा।

INDIAN_ROSE22
29-03-2015, 08:10 PM
तुम्हारे इंतजार में
सुबह गई
शाम गई


थकी रीढ़
थक गई आँखे


तुम आईं
साथ लाईं
एक लम्बी मोटी दीवार


आशा कुरेदने लगी है
दीवार को
कहीं धोखे से
लगा रखि हो तुमने सेंध कहीं।

INDIAN_ROSE22
29-03-2015, 08:11 PM
ठहर जाता है
विश्व एक बिन्दु पर
जब तुम नहीं रहतीं


रह रहकर
नशे में उठ पड़ता हूँ
जैसे तुम्हारी बाहैं
हवा में बहती
आ रही हों मेरी ओर


तुम्हारी जीभ, तुम्हारे वक्ष
नितम्ब तुम्हारे मुड़ मुड़
आते हैं हथेलियों पर


देखता रहता हूँ
अपनी उंगलियों को
जैसे तुमने परखा था उन्हें

INDIAN_ROSE22
29-03-2015, 08:13 PM
चार सौ सोलह, सेक्*टर अड़तीस में
हम दो रहते हैं

समय और स्*थान के भूगोल को
दो कमरों में हमने
समेटना चाहा है

बाँटना चाहा है
ख़ुद को
हरे-पीले पत्*तों में

हमारे छोटे से सुख-दुःख हैं
हम झगड़ते हैं, प्*यार करते हैं

दूर-सुदूर देशों तक
हमारे धागे
पहुँचते हैं स्*पंदित होंठों तक
आक्रोश भरे दिन-रात
आ बिखरते हैं
चार सौ सोलह, सेक्*टर अड़तीस
के दो कमरों में

हमारे आसमान में
एक चाँद उगता है
जिसे बाँट देते हैं हम
लोगों में
कभी किसी तारे को
अपनी आँखों में दबोच
उतार लाते हैं सीने तक
फिर छोड़ देते हैं
कुछ क्षणों बाद

डरते हैं
खो न जाएँ
तारे
कमरे तो दो ही हैं
कहाँ छिपाएँ?

INDIAN_ROSE22
29-03-2015, 08:15 PM
कितना बोलती हैं
मौका मिलते ही
फव्वारों सी फूटती हैं
घर-बाहर की
कितनी उलझनें
कहानियाँ सुनाती हैं

फिर भी नहीं बोल पातीं
मन की बातें
छोटे शहर की लड़कियाँ

भूचाल हैं
सपनों में
लावा गर्म बहता
गहरी सुरंगों वाला आस्मान है
जिसमें से झाँक झाँक
टिमटिमाते तारे
कुछ कह जाते हैं

मुस्कराती हैं
तो रंग बिरंगी साड़ियाँ कमीज़ें
सिमट आती हैं
होंठों तक

रोती हैं
तो बीच कमरे खड़े खड़े
जाने किन कोनों में दुबक जाती हैं
जहाँ उन्हें कोई नहीं पकड़ सकता

एक दिन
क्या करुँ
आप ही बतलाइए
क्या करुँ
कहती कहती
उठ पड़ेंगी
मुट्ठियाँ भींच लेंगी
बरस पड़ेंगी कमज़ोर मर्दों पर
कभी नहीं हटेंगी

फिर सड़कों पर
छोटे शहर की लड़कियाँ
भागेंगी, सरपट दौड़ेंगी
सबको शर्म में डुबोकर
खिलखिलाकर हँसेंगी

एक दिन पौ सी फटेंगी
छोटे शहर की लड़कियाँ।

INDIAN_ROSE22
29-03-2015, 08:17 PM
नहीं बनना मुझे ऐसी नदी
जिसे पिघलती मोम के
'प्रकाश के घेरे में घर' चाहिए

शब्*द जीवन से बड़ा है यह
गलतफहमी जिनको हो
उनकी ओर होगी पीठ

रहूँ भले ही धूलि-सा
फिर भी जीवन ही कविता होगी
मेरी।

INDIAN_ROSE22
29-03-2015, 08:17 PM
कठिन है
स्*पर्श की कल्*पना
सहज है
काल्*पनिक स्*पर्श को सच में बदलना

तुम्*हारी बढ़ती उँगलियों को चूमती
किसी की त्*वचा में
एक पौधा जन्*म ले रहा है
जिसे धूप और बारिश के अलावा
तुम्*हारी जरूरत है

देखो
पौधे की पत्तियों को
सूंघो उनकी ताजगी को
जानो स्*पर्श।

INDIAN_ROSE22
29-03-2015, 08:18 PM
चालीस किलोमीटर प्रति घण्*टे
फिसलती सड़क रूकी अचानक
सभी पैसेन्*जर
बढ़ आए गेट तक

ओए- उस बूढ़े ने कहा
तेरी...- कोई और चीख़ा

उछल पड़े
चार लोग
उस मनहूस पर
जो एक औरत को पीट रहा था

बस फिर चल पड़ी
इस बेजान शहर में
सब कुछ सुंदर लगने लगा अचानक
कहता रहा खुद से बार-बार
जान है, अभी यहाँ जान है।

INDIAN_ROSE22
29-03-2015, 08:19 PM
बूढ़े ने कहा
ठंड आ गयी साहब
कल दीवाली है
और जूठे बर्तन
उठाकर चला गया

कितनी गंदी है दीवाली
गंदी है
मीठी सी मुस्*कान बूढ़े की।

INDIAN_ROSE22
29-03-2015, 08:22 PM
मेरे बाप को मरे इस दिन चार साल हो गए

बाप
पियक्*कड़ मज़दूर
माँ को लातें मारता

शराब की महक के साथ
गालियाँ होंठों से निकलतीं
गोलियों की बौछार-सी

जहाँ मर्ज़ी मूत देता
कभी-कभी
सारी-सारी रात
जगे रहते हम

मज़दूर बाप मेरा
शहर के गन्*दे नालों-सा सच
थप्*पड़ मार-मार कोशिश की
मैं पढ़ूँ
बन जाऊँ साहबों-सा पैसे वाला
गन्*दगी ने बनाया मुझे
खौलता सच्*चा इंसान।

sultania
29-03-2015, 08:23 PM
काफी अच्छी कोशिश कर रहे हो रोज भाई---KEEP GOING

INDIAN_ROSE22
29-03-2015, 08:23 PM
किस गली में रहते हैं आप जीवनलालजी
किस गली में

क्या आप भी अखबार में पढ़ते हैं
विश्व को आंदोलित होते

आफ्रिका, लातिन अमेरीका
क्या आपकी टीवी पर
तैरते हैं औंधे अधमरे घायलों से
दौड़कर आते किसी भूखे को देख
डरते हैं क्या लोग – आपके पड़ोसी
लगता है उन्हें क्या
कि एक दक्षिण अफ्रीका आ बैठा उनकी दीवारों पर

या लाशें एल साल्वाडोर की
रह जाती हैं बस लाशें
जो दूर कहीं
दूर ले जाती हैं आपको खींच
भूल जाते हैं आप
कि आप भी एक गली में रहत हैं

जहाँ लड़ाई चल रही है
और वही लड़ाई
आप देखते हैं

कुर्सी पर अटके
अखबारों में लटके
दूरदर्शन पर

जीवनलालजी
दक्षिण अफ्रीका और एल साल्वाडोर की लड़ाई
हमारी लड़ाई है।