anita
22-05-2017, 10:51 PM
पल भर की उस चंचलता ने
खो दिया हृदय का स्वाधिकार।
श्रद्धा की अब वह मधुर निशा
फैलाती निष्फल अंधकार।
मनु को अब मृगया छोड़, नहीं
रह गया और था अधिक काम।
लग गया रक्त था उस मुख में
हिंसा-सुख लाली से ललाम।
हिंसा ही नहीं, और भी कुछ
वह खोज रहा था मन अधीर।
अपने प्रभुत्व की सुख सीमा
जो बढ़ती हो अवसाद चीर।
जो कुछ मनु के करतलगत था
उसमें न रहा कुछ भी नवीन।
श्रद्धा का सरल विनोद नहीं
रुचता अब था बन रहा दीन।
उठती अंतस्तल से सदैव
दुर्ललित लालसा जो कि कांत।
वह इंद्रचाप-सी झिलमिल हो
दब जाती अपने आप शांत।
"निज उद्गम का मुख बंद किये
कब तक सोयेंगे अलस प्राण।
जीवन की चिर चंचल पुकार
रोये कब तक, है कहाँ त्राण।
श्रद्धा का प्रणय और उसकी
आरंभिक सीधी अभिव्यक्ति।
जिसमें व्याकुल आलिंगन का
अस्तित्व न तो है कुशल सूक्ति।
भावनामयी वह स्फूर्त्ति नहीं
नव-नव स्मित रेखा में विलीन।
अनुरोध न तो उल्लास नहीं
कुसुमोद्गम-सा कुछ भी नवीन।
आती है वाणी में न कभी
वह चाव भरी लीला-हिलोर।
जिसमें नूतनता नृत्यमयी
इठलाती हो चंचल मरोर।
जब देखो बैठी हुई वहीं
शालियाँ बीन कर नहीं श्रांत।
या अन्न इकट्ठे करती है
होती न तनिक सी कभी क्लांत।
बीजों का संग्रह और इधर
चलती है तकली भरी गीत।
सब कुछ लेकर बैठी है वह,
मेरा अस्तित्व हुआ अतीत"
लौटे थे मृगया से थक कर
दिखलाई पडता गुफा-द्वार।
पर और न आगे बढने की
इच्छा होती, करते विचार।
मृग डाल दिया, फिर धनु को भी,
मनु बैठ गये शिथिलित शरीर।
बिखरे ते सब उपकरण वहीं
आयुध, प्रत्यंचा, श्रृंग, तीर।
" पश्चिम की रागमयी संध्या
अब काली है हो चली, किंतु।
अब तक आये न अहेरी वे
क्या दूर ले गया चपल जंतु।
" यों सोच रही मन में अपने
हाथों में तकली रही घूम।
श्रद्धा कुछ-कुछ अनमनी चली
अलकें लेती थीं गुल्फ चूम।
केतकी-गर्भ-सा पीला मुँह
आँखों में आलस भरा स्नेह।
कुछ कृशता नई लजीली थी
कंपित लतिका-सी लिये देह।
खो दिया हृदय का स्वाधिकार।
श्रद्धा की अब वह मधुर निशा
फैलाती निष्फल अंधकार।
मनु को अब मृगया छोड़, नहीं
रह गया और था अधिक काम।
लग गया रक्त था उस मुख में
हिंसा-सुख लाली से ललाम।
हिंसा ही नहीं, और भी कुछ
वह खोज रहा था मन अधीर।
अपने प्रभुत्व की सुख सीमा
जो बढ़ती हो अवसाद चीर।
जो कुछ मनु के करतलगत था
उसमें न रहा कुछ भी नवीन।
श्रद्धा का सरल विनोद नहीं
रुचता अब था बन रहा दीन।
उठती अंतस्तल से सदैव
दुर्ललित लालसा जो कि कांत।
वह इंद्रचाप-सी झिलमिल हो
दब जाती अपने आप शांत।
"निज उद्गम का मुख बंद किये
कब तक सोयेंगे अलस प्राण।
जीवन की चिर चंचल पुकार
रोये कब तक, है कहाँ त्राण।
श्रद्धा का प्रणय और उसकी
आरंभिक सीधी अभिव्यक्ति।
जिसमें व्याकुल आलिंगन का
अस्तित्व न तो है कुशल सूक्ति।
भावनामयी वह स्फूर्त्ति नहीं
नव-नव स्मित रेखा में विलीन।
अनुरोध न तो उल्लास नहीं
कुसुमोद्गम-सा कुछ भी नवीन।
आती है वाणी में न कभी
वह चाव भरी लीला-हिलोर।
जिसमें नूतनता नृत्यमयी
इठलाती हो चंचल मरोर।
जब देखो बैठी हुई वहीं
शालियाँ बीन कर नहीं श्रांत।
या अन्न इकट्ठे करती है
होती न तनिक सी कभी क्लांत।
बीजों का संग्रह और इधर
चलती है तकली भरी गीत।
सब कुछ लेकर बैठी है वह,
मेरा अस्तित्व हुआ अतीत"
लौटे थे मृगया से थक कर
दिखलाई पडता गुफा-द्वार।
पर और न आगे बढने की
इच्छा होती, करते विचार।
मृग डाल दिया, फिर धनु को भी,
मनु बैठ गये शिथिलित शरीर।
बिखरे ते सब उपकरण वहीं
आयुध, प्रत्यंचा, श्रृंग, तीर।
" पश्चिम की रागमयी संध्या
अब काली है हो चली, किंतु।
अब तक आये न अहेरी वे
क्या दूर ले गया चपल जंतु।
" यों सोच रही मन में अपने
हाथों में तकली रही घूम।
श्रद्धा कुछ-कुछ अनमनी चली
अलकें लेती थीं गुल्फ चूम।
केतकी-गर्भ-सा पीला मुँह
आँखों में आलस भरा स्नेह।
कुछ कृशता नई लजीली थी
कंपित लतिका-सी लिये देह।