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Thread: लहर सागर का नहीं श्रृंगार

  1. #1
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    लहर सागर का नहीं श्रृंगार




    लहर सागर का नहीं श्रृंगार,
    उसकी विकलता है;
    अनिल अम्बर का नहीं, खिलवार
    उसकी विकलता है;
    विविध रूपों में हुआ साकार,
    रंगो में सुरंजित,
    मृत्तिका का यह नहीं संसार,
    उसकी विकलता है।

    गन्ध कलिका का नहीं उद्गार,
    उसकी विकलता है;
    फूल मधुवन का नहीं गलहार,
    उसकी विकलता है;
    कोकिला का कौन-सा व्यवहार,
    ऋतुपति को न भाया?
    कूक कोयल की नहीं मनुहार,
    उसकी विकलता है।

    गान गायक का नहीं व्यापार,
    उसकी विकलता है;
    राग वीणा की नहीं झंकार,
    उसकी विकलता है;
    भावनाओं का मधुर आधार
    सांसो से विनिर्मित,
    गीत कवि-उर का नहीं उपहार,
    उसकी विकलता है।
    ''निर्वाण का अर्थ वासनाओ से मुक्ति।'' Advocate in Rohtak

  2. #2
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    मेरे साथ अत्याचार।

    प्यालियाँ अगणित रसों की
    सामने रख राह रोकी,
    पहुँचने दी अधर तक बस आँसुओं की धार।
    मेरे साथ अत्याचार।

    भावना अगणित हृदय में,
    कामना अगणित हृदय में,
    आह को ही बस निकलने का दिया अधिकार।
    मेरे साथ अत्याचार।

    हर नहीं तुमने लिया क्या,
    तज नहीं मैंने दिया क्या,
    हाय, मेरी विपुल निधि का गीत बस प्रतिकार।
    मेरे साथ अत्याचार।
    ''निर्वाण का अर्थ वासनाओ से मुक्ति।'' Advocate in Rohtak

  3. #3
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    बदला ले लो, सुख की घड़ियों!

    सौ-सौ तीखे काँटे आये
    फिर-फिर चुभने तन में मेरे!
    था ज्ञात मुझे यह होना है क्षण भंगुर स्वप्निल फुलझड़ियों!
    बदला ले लो, सुख की घड़ियों!

    उस दिन सपनों की झाँकी में
    मैं क्षण भर को मुस्काया था,
    मत टूटो अब तुम युग-युग तक, हे खारे आँसू की लड़ियों!
    बदला ले लो, सुख की घड़ियों!

    मैं कंचन की जंजीर पहन
    क्षण भर सपने में नाचा था,
    अधिकार, सदा को तुम जकड़ो मुझको लोहे की हथकड़ियों!
    बदला ले लो, सुख की घड़ियों!
    ''निर्वाण का अर्थ वासनाओ से मुक्ति।'' Advocate in Rohtak

  4. #4
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    कैसे आँसू नयन सँभाले।

    मेरी हर आशा पर पानी,
    रोना दुर्बलता, नादानी,
    उमड़े दिल के आगे पलकें, कैसे बाँध बनालें।
    कैसे आँसू नयन सँभाले।

    समझा था जिसने मुझको सब,
    समझाने को वह न रही अब,
    समझाते मुझको हैं मुझको कुछ न समझने वाले।
    कैसे आँसू नयन सँभाले।

    मन में था जीवन में आते
    वे, जो दुर्बलता दुलराते,
    मिले मुझे दुर्बलताओं से लाभ उठाने वाले।
    कैसे आँसू नयन सँभाले।
    ''निर्वाण का अर्थ वासनाओ से मुक्ति।'' Advocate in Rohtak

  5. #5
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    आज आहत मान, आहत प्राण!

    कल जिसे समझा कि मेरा
    मुकुर-बिंबित रूप,
    आज वह ऐसा, कभी की हो न ज्यों पहचान।
    आज आहत मान, आहत प्राण!

    'मैं तुझे देता रहा हूँ
    प्यार का उपहार’,
    ’मूर्ख मैं तुझको बनाती थी निपट नादान।’
    आज आहत मान, आहत प्राण!

    चोट दुनिया-दैव की सह
    गर्व था, मैं वीर,
    हाय, ओड़े थे न मैंने
    शब्द-भेदी-बाण।
    आज आहत मान, आहत प्राण!
    ''निर्वाण का अर्थ वासनाओ से मुक्ति।'' Advocate in Rohtak

  6. #6
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    जानकर अनजान बन जा।

    पूछ मत आराध्य कैसा,

    जब कि पूजा-भाव उमड़ा;
    मृत्तिका के पिंड से कह दे
    कि तू भगवान बन जा।
    जानकर अनजान बन जा।

    आरती बनकर जला तू

    पथ मिला, मिट्टी सिधारी,
    कल्पना की वंचना से
    सत्*य से अज्ञान बन जा।
    जानकर अनजान बन जा।

    किंतु दिल की आग का

    संसार में उपहास कब तक?
    किंतु होना, हाय, अपने आप
    हत विश्वास कब तक?
    अग्नि को अंदर छिपाकर,
    हे हृदय, पाषाण बन जा।
    जानकर अनजान बन जा।
    ''निर्वाण का अर्थ वासनाओ से मुक्ति।'' Advocate in Rohtak

  7. #7
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    कैसे भेंट तुम्हारी ले लूँ?
    क्या तुम लाई हो चितवन में,
    क्या तुम लाई हो चुंबन में,
    अपने कर में क्या तुम लाई,
    क्या तुम लाई अपने मन में,
    क्या तुम नूतन लाई जो मैं
    फ़िर से बंधन झेलूँ?
    कैसे भेंट तुम्हारी ले लूँ?


    अश्रु पुराने, आह पुरानी,
    युग बाहों की चाह पुरानी,
    उथले मन की थाह पुरानी,
    वही प्रणय की राह पुरानी,
    अर्ध्य प्रणय का कैसे अपनी
    अंतर्ज्वाला में लूँ?
    कैसे भेंट तुम्हारी ले लूँ?


    खेल चुका मिट्टी के घर से,
    खेल चुका मैं सिंधु लहर से,
    नभ के सूनेपन से खेला,
    खेला झंझा के झर-झर से;
    तुम में आग नहीं है तब क्या,
    संग तुम्हारे खेलूँ?
    कैसे भेंट तुम्हारी ले लूँ?
    ''निर्वाण का अर्थ वासनाओ से मुक्ति।'' Advocate in Rohtak

  8. #8
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    मैंने ऐसी दुनिया जानी|

    इस जगती मे रंगमंच पर
    आऊँ मैं कैसे, क्या बनकर,
    जाऊँ मैं कैसे, क्या बनकर-
    सोचा, यत्न किया भी जी भर,
    किंतु कराती नियति नटी है मुझसे बस मनमानी।
    मैंने ऐसी दुनिया जानी|

    आज मिले दो यही प्रणय है,
    दो देहों में एक हृदय है,
    एक प्राण है, एक श्वास है,
    भूल गया मैं यह अभिनय है;
    सबसे बढ़कर मेरे जीवन की थी यह नादानी।
    मैंने ऐसी दुनिया जानी|

    यह लो मेरा क्रीड़ास्थल है,
    यह लो मेरा रंग-महल है,
    यह लो अंतरहित मरुथल है,
    ज्ञात नहीं क्या अगले पल है,
    निश्चित पटाक्षेप की घटिका भी तो है अनजानी।
    मैंने ऐसी दुनिया जानी|
    ''निर्वाण का अर्थ वासनाओ से मुक्ति।'' Advocate in Rohtak

  9. #9
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    क्षीण कितना शब्द का आधार!

    मौन तुम थीं, मौन मैं था, मौन जग था,
    तुम अलग थीं और मैं तुमसे अलग था,
    जोड़-से हमको गये थे शब्द के कुछ तार।
    क्षीण कितना शब्द का आधार!

    शब्दमय तुम और मैं जग शब्द से भर पूर,
    दूर तुम हो और मैं हूँ आज तुमसे दूर,
    अब हमारे बीच में है शब्द की दीवार।
    क्षीण कितना शब्द का आधार!

    कौन आया और किसके पास कितना,
    मैं करूँ अब शब्द पर विश्वास कितना,
    कर रहे थे जो हमारे बीच छ्ल-व्यापार!
    क्षीण कितना शब्द का आधार!
    ''निर्वाण का अर्थ वासनाओ से मुक्ति।'' Advocate in Rohtak

  10. #10
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    मैं अपने से पूछा करता।

    निर्मल तन, निर्मल मनवाली,
    सीधी-सादी, भोली-भाली,
    वह एक अकेली मेरी थी, दुनियाँ क्यों अपनी लगती थी?
    मैं अपने से पूछा करता।

    तन था जगती का सत्य सघन,
    मन था जगती का स्वप्न गहन,
    सुख-दुख जगती का हास-रुदन;
    मैंने था व्यक्ति जिसे समझा, क्या उसमें सारी जगती थी?
    मैं अपने से पूछा करता।

    वह चली गई, जग में क्या कम,
    दुनिया रहती दुनिया हरदम,
    मैं उसको धोखा देता था अथवा वह मुझको ठगती थी?
    मैं अपने से पूछा करता।
    ''निर्वाण का अर्थ वासनाओ से मुक्ति।'' Advocate in Rohtak

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