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क्या अतिज्ञानी चाणक्य आरम्भ में महामूर्ख था?
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इस लेख का शीर्षक पढ़कर पाठकों को अत्यन्त आश्चर्य हुआ होगा कि अतिज्ञानी चाणक्य आरम्भ में महामूर्ख कैसे था? क्या यह वाकई सत्य है या सिर्फ़ हवा-हवाई है?
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पाठकों को यह जानकर अत्यन्त आश्चर्य होगा कि अपने शत्रुओं को नेस्तनाबूत करने के लिए मनु के मौलिक षाड्गुण्य सिद्धान्त- संधि, विग्रह, आसन, यान, संश्रय और द्वैधीभाव की विस्तृत व्याख्या करके उस पर अमल करने वाले अति बुद्धिजीवी विष्णुगुप्त चाणक्य ने अपने आरम्भकाल में स्वयं इस षाड्गुण्य सिद्धान्त को भूलकर इसके विपरीत व्यवहार किया था। यह तो चाणक्य की अच्छी किस्मत थी जो वह उस समय बाल-बाल बच गया था।
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बता दें कि अतिज्ञानी चाणक्य पर किए गए हमारे गहन अध्ययन से कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए और पाठकों को यह जानकर अत्यन्त आश्चर्य होगा कि दुनिया को अपने अथाह ज्ञान से विस्मित कर देने वाला विष्णुगुप्त चाणक्य आरम्भ में 'अतिज्ञानी' नहीं 'अतिमूर्ख' था अथवा उसने क्रोध में अपने महाज्ञान को विस्मृत कर दिया था। श्रीमद् भगवद्गीता के अध्याय-२, श्लोक-६३ में भी क्रोध के दुष्प्रभावों का सटीक वर्णन किया गया है जो कि निम्नवत् है-
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृति विभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रण तश्यति।।2.63।।
अर्थात्-
'क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य नष्ट हो जाता है।'
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संक्षेप में- 'क्रोध से बुद्धि का नाश हो जाता है जिसके कारण मनुष्य का पतन हो जाता है।' अतः क्रोध के कारण चाणक्य का पतन होना तय था, किन्तु चाणक्य अपने भाग्य के कारण बाल-बाल बच गया था। आइए, जानते हैं उस ऐतिहासिक घटना को जिसके कारण चाणक्य ने महामूर्खों वाली हरकत की थी।
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कहा जाता है कि एक बार आचार्य चाणक्य पाटलिपुत्र के नंद वंश के राजा धनानंद के राजदरबार में पहुँचे जहाँ पर अहंकारी राजा धनानंद ने आचार्य चाणक्य का अपमान कर दिया था, जिसके कारण क्रोधित होकर आचार्य चाणक्य ने भरे दरबार में यह प्रतिज्ञा की कि 'जब तक मैं नंदवंश का नाश नहीं कर दूँगा तब तक अपनी शिखा नहीं बाँधूंंगा।'
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भरे दरबार में अकेले चाणक्य द्वारा एक शक्तिशाली राजा धनानंद को इस प्रकार ललकारना महामूर्खों वाली हरकत नहीं तो और क्या है? धनानंद चाहता तो उसी समय एक इशारे पर चाणक्य का सिर कलम करवा देता या फिर हमेशा के लिए बन्दी बना लेता और फिर चाणक्य की सारी बकैती धरी की धरी रह जाती। न तो नंदवश का अन्त होता और न ही चन्द्रगुप्त मौर्य राजा बनता। यह तो चाणक्य का भाग्य था जो कि धनानंद ने उसे वहाँ से सुरक्षित जाने दिया, जबकि षाड्गुण्य सिद्धान्त की आसन नीति यही कहती है कि 'दुर्बल अपनी शक्ति में वृद्धि करने के उपरान्त एक न एक दिन भयानक आक्रमण अवश्य करेगा।'
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अपने एक लेख में हम यह स्पष्ट चुके हैं कि- 'सकारात्मक सोच वाले खुशफ़हमी में मारे जाते हैं और नकारात्मक सोच वाले गलतफ़हमी में मारे जाते हैं। जो सकारात्मक और नकारात्मक- दोनों पक्षों का तुलनात्मक अध्ययन नहीं करता वह संसार का सबसे बड़ा मूर्ख है।'
ऐसा क्यों? वस्तुतः सकारात्मक विचारों से खुशफ़हमी पैदा होती है तथा नकारात्मक विचारों से गलतफ़हमी पैदा होती है और ये दोनों प्रकार की 'फ़हमी' अत्यन्त घातक सिद्ध होती है।
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वस्तुतः क्रोध की निंदा सर्वत्र की गई है। ईसा पूर्व में ख्यातिप्राप्त तमिल भाषा के महान कवि और दार्शनिक तिरुवल्लूवर द्वारा लिखित तमिल दोहों (कुरल-குறள்) के संग्रह ग्रन्थ तिरुक्कुरल के कुरल-302 में क्रोध को हानिकारक बताते हुए कहा गया है कि-
செல்லா இடத்துச் சினந்தீது செல்லிடத்தும்
இல்அதனின் தீய பிற. (कुरल-302)
तमिल साहित्यकार एवं लेखक मु० वरदराजन ने उपरोक्त कुरल-302 के तमिल भावार्थ में लिखा है-
'फलीभूत न होने वाले स्थान पर (अपने से अधिक बलशाली के ऊपर) क्रोध करना हानिकारक है। फलीभूत होने वाले स्थान पर (अपने से कमज़ोर के ऊपर) क्रोध करने से अधिक हानिकारक और कुछ नहीं है।'
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रोचक बात यह है कि नंद सम्राट धनानंद और आचार्य चाणक्य- दोनों ने ही क्रोध के वशीभूत होकर तिरुक्कुरल में संग्रहीत उपरोक्त दोहे में वर्णित नियमों की अवहेलना की। एक ओर बलशाली सम्राट धनानंद ने क्रोधित होकर अपने से कमज़ोर आचार्य चाणक्य का अपमान किया, वहीं पर दूसरी ओर अपमानित होने के बाद आचार्य चाणक्य ने क्रोधित होकर अपने से बलशाली राजा धनानंद को ललकार दिया। प्रायः बलशाली जब क्रोधित होता है तो अपने से दुर्बल को अपमानित कर दिया करता है। राजा धनानंद ने भी यही किया, किन्तु वह अपनी खुशफ़हमी के कारण मारा गया। राजा धनानंद की खुशफ़हमी थी कि एक दुर्बल ब्राह्मण मेरे जैसे शक्तिशाली सम्राट का क्या बिगाड़ लेगा? इसी खुशफ़हमी के चलते राजा धनानंद ने आचार्य चाणक्य को जाने दिया और फिर सभी जानते हैं कि आचार्य चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य और म्लेच्छ सेना के गठबन्धन में नंद वंश की जड़ें खोद दीं और धनानंद को सत्ता को उखाड़कर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की।
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